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6 :: मूकमाटी-मीमांसा
इसी प्रकार अन्य अनेक प्रतीकों के माध्यम से जीवन की नीतियों और आचरणों का विवेचन किया गया है।
जीवन के बहुत से तत्त्वों का विवेचन इस ग्रन्थ में संवादों के माध्यम से किया गया है। यों तो छोटे-मोटे अनेक संवाद हैं, परन्तु प्रमुख संवाद तीन हैं- प्रथम, धरती- माटी संवाद; द्वितीय, बादल - सूर्य का संवाद और तृतीय कुम्भकलश संवाद । ग्रन्थ का प्रारम्भ ही धरती और माटी संवाद से होता है माटी के यह कहने पर कि मैं स्वयं पतिता हूँ, अधम पापियों से पददलिता हूँ, तिरस्कृत हूँ, दुःख से मुक्त हूँ, अतः मेरा यह जीवन उन्नत होगा या नहीं ? आगे बढ़ने का उपाय बता दो माँ ! धृति-धारिणी धरती कहती है- 'बेटा! सत्ता या अस्तित्व शाश्वत है । रहस्य में पड़ी गन्ध संसर्ग और अनुपान से सजग हो उठती है। तब जैसी संगति मिलती है वैसी ही मति और प्रगति होती है। तूने अपने आपको पतित और लघुतम माना है, इससे सिद्ध होता है कि तूने अपने अहं को त्याग दिया है। इससे तुझे गुरुतम को पहचान अनुकूल दिशा में बढ़ना होगा। अब तुम्हारा मार्ग प्रशस्त है। शिल्पी आएगा और तुम्हारी अनन्त सर्जन सम्भावनाओं को उजागर करेगा ।'
कृपा से
बादल और सूर्य का संवाद आपसी बहस जैसा है। दोनों अपनी-अपनी विशेषताओं का बखान करते हैं और एक-दूसरे की बुराई प्रकट करते हैं। परन्तु धरती और माटी के लिए दोनों की उपयोगिता है, क्योंकि दोनों की ही धरती हरी-भरी और लहलही रहती है । कुम्भ और कलश का संवाद प्रतीकात्मक रूप धारण किए है। कुम्भ, सामान्य निम्नकोटि के साधनहीनजनों का प्रतीक है, क्योंकि वह साधारण मूल्यहीन माटी का बना हुआ है, जबकि कलश सोने, चाँदी, ताँबे और पीतल के बने हैं, अत: वे उच्च समृद्ध वर्ग के प्रतीक हैं। ये कलश उसकी हँसी उड़ाते हैं। कुम्भ में तपस्या और अग्नि परीक्षा की दुहाई देता है पर उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । अन्त में जब सेठ बीमार होता है, तब माटी का कुम्भ ही उपचार बताता है- गीली मिट्टी का और सेठ ठीक होता है। इस प्रकार सामान्य की विजय प्रदर्शित की गई है । परन्तु संवादों के तर्क पूर्णतया शास्त्रीय (एकेडमिक) या वकीलाना ढंग के हैं । अन्त के निष्कर्ष भी बहुत जीवनोपयोगी नहीं जान पड़ते । हाँ, अन्य अनेक स्थलों पर सामयिक सन्देश प्राप्त होते हैं । अनेक प्रसंगों में कही बातें आज के जीवन के लिए उपयोगी मार्गदर्शन या अनुभव के रूप में नीति वाक्य या सुभाषित से लगते हैं । जैसे कुछ उदाहरण स्पष्ट करते हैं, जो आगे उद्धृत हैं :
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'आज पथ दिखाने वालों को / पथ दिख नहीं रहा है, माँ ! कारण विदित ही है - / जिसे पथ दिखाया जा रहा है वह स्वयं पथ पर चलना चाहता नहीं,
औरों को चलाना चाहता है ।" (पृ. १५२)
" निर्बल - जनों को सताने से नहीं, / बल-संबल दे बचाने से ही बलवानों का बल सार्थक होता है ।" (पृ. २७२ )
" दर्शन का स्रोत मस्तक है, / स्वस्तिक से अंकित हृदय से
अध्यात्म का झरना झरता है । / दर्शन के बिना अध्यात्म - जीवन
चल सकता है, चलता ही है/ पर, हाँ ! / बिना अध्यात्म, दर्शन का दर्शन नहीं ।
... अध्यात्म स्वाधीन नयन है / दर्शन पराधीन उपनयन ।” (पृ. २८८) " आत्मा को छोड़कर / सब पदार्थों को विस्मृत करना ही
सही पुरुषार्थ है ।” (पृ. ३४९)
"प्रायः बहुमत का परिणाम / यही तो होता है,
पात्र भी अपात्र की कोटि में आता है।” (पृ. ३८२)
उपर्युक्त कथनों की विवेचना या व्याख्या की आवश्यकता नहीं । ये स्वतः स्पष्ट हैं । जीवन की अनुभूतियों का सार होने के साथ-साथ इनमें जीवन मूल्य भी निहित हैं ।