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मूकमाटी-मीमांसा :: 5 विरुद्ध न कुछ कहता है और न कुछ करता है। फिर भी सारी खेती-बारी का काम, कल-कारखानों में श्रमकार्य, ऊँचेऊँचे भवनों, सड़कों, रेलमार्गों का निर्माण कार्य वही जन-सामान्य मूकभाव से करता है, जिनके श्रम से प्राप्त और निर्मित वस्तुओं का सभी उपभोग करते हैं। परन्तु इस मूलभूत प्रतीक के अतिरिक्त भी अनेक प्रतीक हैं। जैसे मणिमुक्ता का प्रतीक जो स्थितप्रज्ञ का प्रतीक है। कोई उसे बोरों में भरकर ले जाए या तिजोरियों में रखे अथवा आभूषणों में उसका प्रयोग करे, वह सदैव एक भाव रहती है - चाहे कोई उसकी प्रशंसा करे या निन्दा । कवि कथन है :
"बोरियों में भरी गई।/सम्मान के साथ अब जा रही है राज-प्रासाद की ओर"/मुक्त-कण्ठ से प्रशंसा हो रही है,/पर मन्त्र मुग्धा हो सुनती कब उसे ?/मुदित-मुखी महिलाओं के । संकट-हारिणी कण्ठ-हार बनती!/द्वार पर आगत अभ्यागतों के सर पर हाथ रखती,/तारणहार तोरणद्वार बनती, इस पर भी वह/उन्मुक्ता मुक्ता ही रहती
अहंभाव से असंपृक्ता मुक्ता"!" (पृ. २२१) इसी प्रकार एक अन्य प्रतीक श्वान और सिंह का है । श्वान नीच और दुष्टों का प्रतीक है, जबकि सिंह उदात्त भावना वालों और वीर पुरुषों का । इन दोनों की विशेषताएँ बताई गई हैं। इस सम्बन्ध की कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं । इस प्रसंग में यह भी कह देना आवश्यक है कि यह श्वान और सिंह का चित्रण कुम्भ के ऊपर हुआ है, जिसने इन पंक्तियों को प्रेरित किया । उस तुलना की कतिपय पंक्तियाँ ये हैं :
"दोनों की जीवन-चर्या-चाल/परस्पर विपरीत है। पीछे से, कभी किसी पर/धावा नहीं बोलता सिंह, ...परन्तु, श्वान सदा/पीठ-पीछे से जा काटता है, ...स्वामी के पीछे-पीछे पूँछ हिलाता/श्वान फिरता है एक टुकड़े के लिए। सिंह/...अपनी स्वतन्त्रता-स्वाभिमान पर/कभी किसी भाँति
आँच आने नहीं देता वह !/और श्वान/स्वतन्त्रता का मूल्य नहीं समझता, ...श्वान के गले में जंजीर भी/आभरण का रूप धारण करती है। ...श्वान-सभ्यता-संस्कृति की/इसीलिए निन्दा होती है/कि वह अपनी जाति को देख कर/धरती खोदता, गुर्राता है।
सिंह अपनी जाति में मिलकर जीता है।" (पृ. १६९-१७१) इसी प्रकार कुम्भ पर अंकित कछुवा और खरगोश के प्रतीकों की भी तुलना की गई है। कुम्भ पर अंकित 'ही' और 'भी' अक्षरों को एकान्तवाद' और 'अनेकान्तवाद' का प्रतीक माना गया है। इसी प्रकार 'ही' को पश्चिमी सभ्यता का एवं 'भी' को भारतीय संस्कृति का प्रतीक मानकर कहा गया है :
" 'ही' देखता है हीन दष्टि से पर को 'भी' देखता है समीचीन दृष्टि से सब को, ...'ही' पश्चिमी-सभ्यता है/'भी' है भारतीय संस्कृति, भाग्य-विधाता। रावण था 'ही' का उपासक/राम के भीतर 'भी' बैठा था। यही कारण है कि/राम उपास्य हुए, हैं, रहेगे आगे भी । ... 'भी' लोकतन्त्र की रीढ़ है।" (पृ. १७३)