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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 3 का विवेचन है। फिर चाक पर चढ़ाकर कुम्भ बनाया गया। थापी की चोट देकर उसे सुडौल किया गया। जब वह सुन्दर कुम्भ के आकार में ढल गया, तब उस पर अनेक प्रकार की चित्रकारी की गई। इसी प्रसंग में भारतीय और पाश्चात्य सभ्यताओं का तुलनात्मक विवेचन भी प्रस्तुत किया गया है । कुम्भ बन जाने पर आँवाँ तैयार किया गया । उसमें आग लगाई गई। पहले धुआँ उठा, कुम्भ को धूम का भक्षण करना पड़ा । फिर अग्नि में तपना पड़ा। यह उसकी अग्नि परीक्षा हुई। वह पक कर तैयार हो गया। शिल्पी के शिल्प से कुम्भ में अद्भुत शक्ति आई । उस कुम्भ को सेठ का सेवक कुम्भकार से प्राप्त करके पूजा के लिए ले गया। वहाँ उसे धोकर पूजा के लिए सुसज्जित किया गया । केसर मिश्रित चन्दन से उसे चित्रित किया गया। से कण्ठ रँगा गया। कंकम का लेप किया गया। हल्दी, कंकम, केसर, चन्दन से कम्भ का नया सौन्दर्य निखर आया। उसके मुख पर पान और श्रीफल रखे गए। इस प्रकार तैयार कर मांगलिक कुम्भ अठपहलू चन्दन की चौकी पर रखा गया। फिर चैत्यालय में स्थापित प्रभु की पूजा के लिए सेठ गया। उसके उपरान्त प्रांगण में आकर अतिथि के स्वागत (पड़गाहन) के लिए मंगल कुम्भ लेकर खड़ा हुआ । वहीं पर पास में अपने-अपने घरों के सम्मुख बहुत से अन्य लोग भी स्वागत (पड़गाहन) के लिए खड़े थे। कोई स्वर्ण कलश, कोई रजत कलश, कोई ताम्र कलश और कोई पीतल के कलश लिए हए था। सेठ ने अतिथि का स्वागत (पड़गाहन) किया। अतिथि के आते ही आँगन तथा पास-पड़ोस मे खड़े जनसमूह ने जयघोष किया । आहार के पश्चात् सेठ ने अतिथि से आशीर्वाद की प्रार्थना की ताकि हम आपके मार्ग पर चलें और अपने अस्तित्व को पहचान सकें, ऐसा हमारा मार्गदर्शन कीजिए । अतिथि के मुँह से शब्द निकले : 'जो कुछ दिखता है, वह मैं नहीं हूँ। मुझ में जानने-देखने की शक्ति है । उसी का स्रष्टा हूँ। सभी का द्रष्टा हूँ।' __ इतना कहकर वे चल पड़े और उनके पीछे सेठ भी । सेठ पूछता है-'काल की कसौटी पर कैसे खरा उतरूँ?' गुरु का उत्तर है, आत्मा को छोड़कर सब पदार्थों को विस्मृत करना ही पुरुषार्थ है।' सेठ परिवार समेत हर्षित होकर रह रहा था। उसे पात्रदान से सन्त समागम प्राप्त हुआ। कुम्भ नीतिवाक्य कहता है। सबको अनुभव होता है कि कुम्भ के कारण ही सन्त का मिलन हुआ । इसी बीच में मानव सभ्यता का विश्लेषण करते हुए जीवन की कुछ उपयोगी बातें कही गई हैं। तब समीपस्थ सोने का कलश कुछ अपनी बातें कहता है और माटी का कुम्भ अपनी बातें। लम्बा कलश - कुम्भ संवाद कुलीन और निम्न वर्ग का संवाद है । अन्य कलशों के साथ भी कुम्भ का संवाद विस्तार से होता है जिसमें सभी कलश माटी के कुम्भ की हँसी उड़ाते हैं। इस पर सेठ दु:खी हुआ। ताप और संतापग्रस्त होकर वह अस्वस्थ हो गया। चिकित्सा-विशारद वैद्य आए, पर लाभ नहीं हुआ । अन्तत: कुम्भ के कहने पर प्राकृतिक चिकित्सा हुई । छनी माटी का लोंदा बनाकर सिर पर रखा गया। पेट पर और नाभि के निचले भाग पर भी । माटी के उपचार से सेठ नीरोग हुआ और यह सब था कुम्भ का चमत्कार । इस बात पर कुम्भ के द्वारा धातु कलशों का उपहास भी हुआ। धातु कलशों ने उपहास से उत्तेजित होकर आतंकवाद का सहारा लिया । अवांछित तत्त्वों ने सेठ का घर घेर लिया । पर कुम्भ की सलाह से सेठ सपरिवार बाहर निकल भागे । मार्ग में सिंहों, व्याघ्रों, गजों, अजगरों आदि से बचते हुए सेठ की रक्षा हुई। सेठ निर्दोष सिद्ध हुए। पर कुम्भ ने कहा, 'अभी लौटना नहीं है। आतंकवाद गया नहीं है। उससे संघर्ष करना है।' आगे बढ़ने पर मार्ग में नदी आई। कुम्भ के सुझाव पर उसके गले में रस्सी बाँधकर दूसरा छोर अपनीअपनी कटि में बाँध कर सभी नदी पार करने लगे। नदी से सेठ ने कहा कि यदि धरा का आधार नहीं मिलता तो तुम्हारा अस्तित्व और गति ही न होती। इसी पर तुम्हारा जीवन निर्भर है। बीच नदी में तूफान आया, आतंकवादी दल की नाव उलटी । सेठ सपरिवार एक-दूसरे को सहारा देते हुए किनारे गया। वह वही किनारा था जहाँ से कुम्भकार ने माटी लेकर घट का निर्माण किया था। कुम्भकार प्रसन्न हुआ, अपनी रचना की गौरवमय गाथा को सुनकर । उस समय माँ धरती ने माटी से कहा- 'कुम्भकार या शिल्पी का संसर्ग सृजनशील जीवन का आदिम सर्ग है । जिसका संसर्ग मिला, उसके प्रति समर्पण द्वितीय सर्ग है। समर्पण के बाद परीक्षाओं और अग्नि परीक्षाओं को उत्साह और साहस के साथ सहन करना तृतीय सर्ग है। परीक्षा के बाद ऊर्ध्वमुखी होकर स्वाश्रित का विसर्ग अन्तिम सर्ग है तथा स्वयं
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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