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आचार्य विद्यासागर कृत 'मूकमाटी' : एक समीक्षण
डॉ. भगीरथ मिश्र 'मूकमाटी' एक वैचारिक, आध्यात्मिक और नैतिक तत्त्वों से युक्त संवाद महाकाव्य है । परम्परागत महाकाव्य की कसौटी पर तो यह खरा नहीं उतरता, यद्यपि इसके प्रस्तवन' में श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन ने इसे महाकाव्य सिद्ध करने का प्रयत्न किया है, पर वह केवल बाह्याकार-प्रकार की पैमाइश है – अन्तरंग भावान्दोलन और जीवन का साकार संवेद्य दृष्टिगामी रूप इसमें नहीं मिलता और वह इसके रचनाकार का लक्ष्य भी नहीं है, क्योंकि वह श्रमण संस्कृति के अनुरूप भी नहीं बैठता । आचार्य मुनिवर विद्यासागरजी की यह रचना जड़ पात्रों में चेतना का जादू भरकर खड़ी की गई है और इन पात्रों के प्रतीकों के बहाने इसमें परम्परागत त्याग, परिश्रम, निष्ठा, समर्पण, सहिष्णुता, धैर्य, साहस जैसे नैतिक गुणों का विश्लेषण और विवेचन किया गया है।
'मूकमाटी' का कथानक बड़ा क्षीण और प्रतीकात्मक है । इसके पात्र प्राय: सभी प्रकृति के जड़ पदार्थ हैं, पर वे चेतन के रूप में वार्तालाप करते हैं और एक प्रकार से जीवन के चेतन पात्रों के प्रतीक हैं। यह क्षीण कथानक ही बीच-बीच में दार्शनिक और नैतिक विचारों, आध्यात्मिक भावनाओं तथा साधना प्रक्रियाओं के विवरण के भराव से चार सौ पृष्ठों से अधिक का विस्तृत काव्य बन गया है। इसमें सन्देह नहीं कि आद्योपान्त विशद वर्णनों और संवादों में कवि दृष्टि का प्राधान्य है । कथानक का संक्षिप्त रूप इस प्रकार है- प्रभात वेला में मन्द-मन्द गति से सरिता बह रही है। उसी समय उसके तट की मृदु माटी माँ धरती से कह रही है: 'मैं पतिता, पद-दलिता हूँ। हमारी उन्नति कब होगी? हमारा मार्गदर्शन करो।' इस पर माँ धरती कहती है कि 'सत्ता शाश्वत होती है । वह उत्थान-पतन की अगणित सम्भावनाओं को जन्म देती है। संगति के साथ व्यक्ति और वस्तु का रूप बदलता है। बादलों से गिरने वाला उजला जल मिट्टी का संसर्ग पाकर कीचड़ बन जाता है, वही जल वृक्षों की जड़ों में जाकर हरी-हरी पत्ती, फूल और फल बनता है। ये सम्भावनाएँ तुझमें हैं। तूने अपने को पतित कहा है और लघुतम माना है, अत: निश्चय ही तू प्रभु, गुरुतम का सान्निध्य प्राप्त करेगी। तेरा भला साधना से ही होगा। धरती की यह बात सुनकर माटी कहती है कि माँ ! मुझे अब रास्ता मिल गया।'
धरती बोली : 'बेटा ! अच्छा हुआ कि मेरा आशय तुम्हारे भीतर उतर गया। कल के प्रभात से तुम्हारी यात्रा आरम्भ होगी। शिल्पी आएगा, तम्हें पतित से पावन करने। उसी के द्वारा तम्हारा जीवन गौरवमय बनेगा। उस के साथ, शिल्पकला पर अपनी यात्रा का सूत्रपात करना है तुम्हें।'
माटी प्रतीक्षा करने लगी, उस प्रभात की, जिसमें शिल्पी आएगा। प्रतीक्षा कर ही रही थी कि मंगल घटनाएँ घटित होने लगीं । उछलता हुआ मृग बाएँ से दाहिने जा रहा था । उसे आशा बँधी, तभी उसे अपनी ओर बढ़ते हुए श्रमिक चरण दिखाई पड़े । माटी फूली न समाई। आने वाले श्रमिक चरण एक दृढ़ संकल्पी - कुशल शिल्पी मानव के थे, जिसका शिल्प कण-कण के रूप में बिखरी माटी को नाना रूप प्रदान करता है । अपनी संस्कृति को वह विकृत नहीं होने देता। वह कुशल शिल्पी कुम्भकार के नाम से जाना जाता है । वह आया और ओंकार को नमन कर माटी का संस्कार करने लगा। उसने कुदाली से माटी खोदी, उसको बोरी में भरा और गदहे पर लादा। फिर माटी को छाना गया। उसमें मिले कंकर-पत्थर बीने गए। अलग होने पर कंकर शिल्पी से कहते हैं : 'हमें माँ से अलग क्यों कर रहे हो ?' शिल्पी ने उत्तर दिया : 'मृदु माटी से, लघु जाति से मेरा शिल्प निखरता है, जबकि कठोर कंकरों से वह बिखरता है । तुम इतने दिनों माटी के साथ रह कर उससे आत्मसात् न हुए, उससे घुल-मिल न पाए। तुममें तो जल-धारण की भी क्षमता नहीं। माटी में तो बीज बोने से फसल आती है, जिससे सृष्टि पलती है, अत: माटी गरिमावान् है । तुममें वे गुण नहीं हैं, अत: तुम उसके साथ नहीं रह सकते।'
तत्पश्चात् माटी भिगोई गई । उसमें जल मिलाने की प्रक्रिया में माटी-मछली संवाद है । माटी को रौंदकर उसका लोंदा बनाया गया। उसमें हथेलियों के थपेड़ों से स्निग्धता लाई गई। इसी बीच उपदेश के साथ-साथ सभी रसों