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'मूकमाटी' : आधुनिक भारतीय साहित्य की बड़ी उपलब्धि
___डॉ. वीरेन्द्र कुमार दुबे आचार्य विद्यासागर, जिन्हें आचार्य पद से सम्मानित किया गया है, आपने हिन्दी, संस्कृत तथा अंग्रेजी आदि में विभिन्न प्रकार की रचनाओं का सृजन किया है और राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित कर रहे हैं। वे निरन्तर ग्राम, नगर तथा तीर्थक्षेत्रों में अपने वचनामृत के द्वारा जनकल्याण के साथ ही आत्मसाधना भी कर रहे हैं। धर्म,दर्शन एवं आध्यात्मिक सार को आज की भाषा एवं मुक्त छन्द की काव्यशैली में निबद्ध कर कविता/रचना को शब्द चमत्कार के द्वारा बाँधकर कर्मबद्ध आत्मा की विशुद्धि की ओर बढ़ती हुई मंज़िल रूप मुक्ति यात्रा को अपने विचारों के द्वारा महाकाव्य 'मूकमाटी' में संकलित किया है।
'मूकमाटी' महाकाव्य का सृजन आधुनिक भारतीय साहित्य की एक बड़ी उपलब्धि है । इसमें 'माटी' जैसी मूक, आकिंचन्य, पद-दलित और तुच्छ वस्तु को महाकाव्य का विषय बनाया गया है। 'मूकमाटी' में प्रस्तुत कविताएँ पाठक को अध्यात्म के साथ अ-भेद की स्थिति तक पहुँचाती हैं। आचार्य विद्यासागर की यह कति 'मकमाटी' मात्र कवि कर्म ही नहीं है बल्कि वह सन्त की आत्मा भी है । सन्त की आत्मा कठोर साधना का जीवन्त प्रतिरूप है, जो साधना से प्राप्त आत्म विशुद्धि की मंज़िलों को सावधानी से सबके हृदय में गुंजित, प्रस्फुरित कर रहा है । ये सन्त तपस्या से अर्जित जीवन दर्शन को अनुभूति में रचा-पचा कर सबके/प्राणीमात्र के हृदयों में गुंजरित कर देना चाहते हैं।
__'मूकमाटी' महाकाव्य ४८८ पृष्ठ में समाहित है। इसमें कुमुदिनी, कमलिनी, चाँद, तारे, सुगन्ध पवन, सरिता तट आदि के द्वारा प्राकृतिक वर्णन/सौन्दर्य दार्शनिक रूप से व्यक्त है तथा महाकाव्य की अपेक्षाओं के अनुरूप ही प्राकृतिक परिवेश में प्रस्तुत किया गया है । महाकाव्य की दृष्टि से 'मूकमाटी' में शब्दों और अर्थों को मोहक रूप से प्रस्तुत किया गया है । 'मूकमाटी' महाकाव्य में शब्द साधना के द्वारा नारी, सुता, दुहिता, कुमारी, स्त्री, अबला आदि के बारे में आस्था और आदर भाव प्रस्तुत किया गया है।
प्रथम खण्ड 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ' (पृष्ठ १ से ८८) में हम देखते हैं कि विस्तृत वाणी के आशय में प्राथमिक दशा में मिट्टी की उस प्रक्रिया को व्यक्त किया गया है जहाँ वह विभिन्न प्रकार की मिली-जुली अवस्था में है। प्रगति पथ पर बढ़ने हेतु 'मूकमाटी' के द्वारा शुद्ध दशा को प्राप्त करने का प्रवचन दिया गया है।
___ द्वितीय खण्ड 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं' (पृष्ठ ८९ से १८७) में कुंकुम-सम मृदु माटी को खोदने की प्रक्रिया में कुम्भकार की कुदाली एक काँटे के माथे पर जा लगती है - उस क्षण/दशा का अत्यन्त मार्मिक ढंग से वर्णन किया गया है । कुम्भकार की कुदाली से क्या हो सकता है, उसका वर्णन है तथा काँटे के द्वारा बदला लेने की भावना/प्रतिक्रिया स्वरूप विचार भी रखे हैं और इसी माध्यम से अपने चिन्तन को सामने प्रस्तुत किया है । इसी में संगीत की अन्तरंग प्रकृति शृंगार रस को और कविता के माध्यम से तत्त्वदर्शन के चमत्कार को अनुभूति के आचरण में उतारने पर जोर दिया है।
तीसरे खण्ड 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' (पृष्ठ १८९ से २६७) में बतलाया गया है कि मन-वचन की निर्मलता से, शुभ कार्य एवं लोक कल्याण से ही पुण्य मिलता है जबकि क्रोधादिक से यह देखा जाता है कि मान, माया, लोभादिक विकार और पाप उत्पन्न होते हैं। पुण्य-पाप और कर्म के स्वरूप का सही चित्रण प्रस्तुत किया गया है।
चतुर्थ खण्ड ‘अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' (पृष्ठ २६९ से ४८८) में कुम्भकार के द्वारा घट को रूप और आकार प्रस्तुत किया है। उसकी प्रक्रिया में बबूल की लकड़ी की अपनी व्यथा-कथा को महाकाव्य में वर्णित किया गया है। लकड़ियाँ जलती-झुलसतीं हैं। उसी की प्रतिक्रिया को स्पष्ट किया गया है तथा पुन: कुम्भकार द्वारा अग्नि प्रज्वलित की जाती है। इसमें माटी की विकास कथा के माध्यम से तथा पुण्य कर्म के सम्पादन से उपजी श्रेयस्कर उपलब्धि का