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'मूकमाटी' : सम्पूर्ण जीवन दर्शन का सार
सम्पादक - दिगम्बर जैन महासमिति पत्रिका सच्चे तपस्वी व सन्त का ध्येय हर वस्तु में ऐसे अध्यात्म तत्त्व की खोज करना रहता है जो उसके आत्मकल्याण के मार्ग में और सहायक हो सके । परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी ने माटी जैसी अकिंचन वस्तु में जिस अध्यात्म व चरम भव्यता के दर्शन किए हैं, वह वस्तुत: अलौकिक है । माटी को आधार बनाकर समस्त जीवन दर्शन को खोलकर रख देना आचार्य श्री विद्यासागरजी जैसे तपे हुए सन्त के बूते की ही बात थी। जिस महासन्त ने अपना सम्पूर्ण यौवन गहन तपस्या और अटूट साधना की भेंट चढ़ा दिया हो वही माटी जैसी तुच्छ वस्तु की अन्तर्वेदना को साकार रूप देने में सक्षम है।
'मूकमाटी' ऐसा महाकाव्य है जिसमें रचनाकार की साधना के साथ-साथ उनकी काव्य प्रतिभा भी अपने सम्पूर्ण रूप में परिलक्षित हुई है । पर कोई भी पाठक इस महाकाव्य का सही मायने में तभी रसास्वादन कर सकता है जब वह इसके भावों में डूब जाय। ऊपरी मन से इसके पठन से केवल इसका साहित्यिक आनन्द ही उठाया जा आचार्यश्री ने माटी की वेदना-व्यथा को कितने मार्मिक रूप में व्यक्त किया है :
"स्वयं पतिता हूँ/और पातिता हूँ औरों से,/- अधम पापियों से पद-दलिता हूँ माँ !/सुख-मुक्ता हूँ/दुःख-युक्ता हूँ तिरस्कृत त्यक्ता हूँ माँ !/इसकी पीड़ा अव्यक्ता है। व्यक्त किसके सम्मुख करूँ!/...इस पर्याय की/इति कब होगी ?
इस काया की/च्युति कब होगी ?/बता दो, माँ "इसे !" (पृ. ४-५) काव्य की दृष्टि से भी 'मूकमाटी' पूर्ण है। इसमें कोई कोर-कसर नहीं है। नए शब्दों की व्युत्पत्ति और उनका उपयोग देखने लायक है। एक बानगी :
"युग के आदि में/इसका नामकरण हुआ है/कुम्भकार ! 'कुं यानी धरती/और/'भ' यानी भाग्य
यहाँ पर जो/भाग्यवान् भाग्य-विधाता हो/कुम्भकार कहलाता है।" (पृ. २८) आचार्यश्री का राख' में आत्म-दर्शन तो अद्भुत ही है :
"तन और मन को/तप की आग में/तपा-तपा कर/जला-जला कर राख करना होगा/यतना घोर करना होगा/तभी कहीं चेतन - आत्मा खरा उतरेगा।/खरा शब्द भी स्वयं/विलोमरूप से कह रहा है
राख बने बिना/खरा-दर्शन कहाँ ?/रा"ख"ख"रा"।” (पृ.५७) चार खण्डों -(१) संकर नहीं : वर्ण-लाभ (२) शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं (३) पुण्य का पालन: पाप-प्रक्षालन और (४) अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख- में विभक्त सन्त कवि आचार्य विद्यासागरजी के इस महाकाव्य में माटी की सम्पूर्ण दशाओं का अत्यन्त हृदयग्राही वर्णन है । इसमें कथानक का भी अभाव नहीं है पर वह तभी हृदयंगम होगा, जब पाठक उन्हीं भावों से उन्हें पढ़ें। अध्यात्म और काव्य रस से सराबोर आचार्यश्री की यह कृति वस्तुतः अभिनन्दनीय है।
[सम्पादक : दिगम्बर जैन महासमिति पत्रिका (पक्षिक), जयपुर (राज.), १५ जनवरी, १९८९]
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