SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 545
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 459 को है। एक रचनाकार के रूप में श्री विद्यासागरजी स्वयं कवि होने का दावा नहीं करते। वे बहुत साफ़ शब्दों में ग्रन्थ के अन्त में कहते हैं : "इस पर भी यदि/तुम्हें/श्रमण-साधना के विषय में और अक्षय सुख-सम्बन्ध में विश्वास नहीं हो रहा हो/तो फिर अब अन्तिम कुछ कहता हूँ/कि,/...शब्दों पर विश्वास लाओ!" (पृ. ४८७-४८८) यह आग्रह कवि का नहीं हो सकता है, सन्त या मुनि का या किसी पैग़म्बर का ज़रूर हो सकता है। ___ यह मानकर चलना चाहिए कि कोई काव्य ग्रन्थ किसी तत्त्व दर्शन का विवेचन ही न करे अथवा कविता के लिए अध्यात्म सर्वथा अस्पृश्य है, एक गलत आधार भूमि पर खड़े रहना होगा। लेकिन आध्यात्मिक ग्रन्थ को काव्य नहीं कहा जा सकता, क्योंकि कवि को कवि ही रहना होता है, उपदेशक या मुनि की भूमिका से बचना होता है। ___इतना सब कह लेने के बाद यह स्वीकार करने में मुझे कोई झिझक नहीं है कि मुनि श्री विद्यासागरजी ने जैन दर्शन के गूढ़ तत्त्वों को सरल भाषा में समझाने की चेष्टा की है और 'मूकमाटी' में उनका भावुक पक्ष सम्पूर्ण काव्यात्मक रागात्मकता के साथ अभिव्यक्त हुआ है। पाठकों को बाँधने वाले इस ग्रन्थ के लिए उनका अभिनन्दन ही किया जाएगा। पृष्ठरपूर-२५१ फूल ने पवन को---- और कोई प्रयोजना नहीं- हाँ।
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy