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________________ 438 :: मूकमाटी-मीमांसा काव्य का कथानक प्रतीकात्मक है और ये सहज भी है । गहन आध्यात्मिक रहस्यों का उद्घाटन सरलता से नहीं हो पाता किन्तु प्रतीक रूप में उनका प्रतिपादन सहज हो जाता है। इसीलिए अनेक सन्तों की वाणियाँ प्रतीक का आधार लेती हैं । कुम्भकार गुरु के निमित्त लक्ष्य-प्राप्ति का आधार या मार्गदर्शक बनता है जो निर्विकार, निर्लिप्त है। कुम्भ का तपना एवं अनेक कठिनाइयों का सामना करना साधक की परीक्षाएँ हैं, जो लक्ष्य साधन के विभिन्न सोपान हैं। इनको पार करना कठिन है किन्तु लक्ष्य प्राप्ति के लिए अनिवार्य भी। 'मछली' विचक्षण ज्ञान या दृष्टि है जो साधक के लिए अत्यावश्यक है। सही राह की पहचान यहीं से होती है। सेठ परिवार' आन्तरिक कोण से साधक के सद्गुण हैं तथा बाह्य रूप से वे साधु पुरुष एवं सज्जन हैं जो साधक की प्रगति में सहायक बनते हैं। 'आतंकवादी' एवं क्रान्तिकारी-जन वे आतंकवादी मानसिक प्रवृत्तियाँ हैं जो साधक की बाधक बनती हैं। इनका होना निर्विवाद एवं आवश्यक भी है, अन्यथा सोना खरा कैसे बन पाएगा ? 'नदी' साधक के विचक्षण ज्ञान की परीक्षा है जो धीरे-धीरे साधक के परिपक्व ज्ञान के सम्मुख कमज़ोर होती जाती है। कथानक संक्षिप्त है- समर्पित जिज्ञासु का गुरुकृपा एवं श्रद्धा के फलस्वरूप अध्यात्म का पथ अपनाना, अपनाने के पश्चात् विभिन्न कठिनाइयों एवं परीक्षाओं का सामना करना । आध्यात्मिक मार्ग अत्यन्त कठिन प्रतीत होता है, जो सहज है क्योंकि माया की शक्ति अत्यन्त प्रबल है। षविकारों की, शारीरिक एवं मानसिक यन्त्रणाओं की बौछार अवश्यंभावी है, अन्यथा परिपक्वता पाना असम्भव है । गुरु का सतत सहारा साधक को प्राप्त होता रहता है जो उसका मार्गदर्शन करता है । अन्तत: ज्ञान की प्राप्ति गुरु-कृपा से ही होती है। ___भाव-पक्ष की उदात्तता चरम बिन्दु पर काव्य में उपस्थित हुई है। विचार गहरे एवं गूढ़ हैं जो स्वाभाविक ही हैं। दार्शनिक विचारों के अनुरूप प्रतीकात्मक शैली का सफल प्रयोग हुआ है। काव्य का प्रथम भाग बहुत ही मर्मस्पर्शी बन गया है, जहाँ माटी को अपनी माँ से स्नेहिल मार्गदर्शन प्राप्त होता है । कहीं-कहीं भावों की सुकुमारता कितनी सुन्दर है : "तृण-बिन्दुओं के मिष/उल्लासवती सरिता-सी धरती के कोमल केन्द्र में/करुणा की उमड़न है, और उसके/अंग - अंग/एक अपूर्व पुलकन ले डूब रहे हैं/स्वाभाविक नर्तन में !" (पृ. २०) जहाँ तक कला-पक्ष देखने की बात है, जो वस्तुत: ऐसे आध्यात्मिक ग्रन्थ में गौण स्थान रखता है, लेकिन यहाँ काव्य की भाषा-शैली बहुत ही सरल एवं प्रभावशाली है । अलंकारों की छटा जहाँ-तहाँ स्वाभाविक रूप से बिखरी हुई है। सूरज का मानवीकरण कितना नवीन है : "दूरज होकर भी/स्वयं रजविहीन सूरज ही/सहस्रों करों को फैलाकर सुकोमल किरणांगुलियों से/नीरज की बन्द पाँखुरियों-सी शिल्पी की पलकों को सहलाता है।" (पृ. २६५) कुछ रसों की तो संक्षिप्त व्याख्या-सी ही कवि ने कर दी है : "शान्त-रस किसी बहाव में/बहता नहीं कभी ...करुणा में वात्सल्य का/मिश्रण सम्भव नहीं है।" (पृ. १५७)
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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