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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 437 व्यासजी ने समस्त उपनिषदों के सारांश को इसी एक वाक्य में दे दिया था। कुम्भ भी स्वयं तपता है, धैर्य से पूर्णता प्राप्त करता है, केवल एक ही लक्ष्य के लिए - जो है परोपकार । परोपकार में ही स्वयं का उपकार है, स्वयं की सार्थकता है। इसी प्राचीन वाणी को मुखरित करने के लिए मानों ये काव्य लिखा गया है। कबीर व रहीम की ही तरह कवि कहीं-कहीं समाज का सूक्ष्म अध्येता हो जाता है और सामाजिक प्रवृत्तियों का सहज चित्रण कर जाता है । यथा, लकड़ियाँ अपने निरर्थक एवं गलत प्रयोग कर बिलखती हुई कहती हैं : 0 “प्राय: अपराधी-जन बच जाते/निरपराध ही पिट जाते/और उन्हें पीटते-पीटते टूटतों हम ।/इसे हम गणतन्त्र कैसे कहें ? यह तो शुद्ध 'धनतन्त्र' है/या/मनमाना 'तन्त्र' है।" (पृ. २७१) "आशातीत विलम्ब के कारण/अन्याय न्याय-सा नहीं न्याय अन्याय-सा लगता ही है।" (पृ. २७२) "परन्तु खेद है कि/लोभी पापी मानव/पाणिग्रहण को भी __ प्राण-ग्रहण का रूप देते हैं।” (पृ. ३८६) यहाँ दहेज प्रथा से जुड़ी समस्या जिसे 'ब्राइड-बर्निंग (Bride-burning) कहा जाता है, पर यह सूक्ष्म व्यंग्य है। "यह कटु-सत्य है कि/अर्थ की आँखें/परमार्थ को देख नहीं सकती अर्थ की लिप्सा ने बड़ों-बड़ों को/निर्लज्ज बनाया है।" (पृ. १९२) समाज के धन-लोलुप रूप को सहजता से प्रत्यक्ष कर दिया है कवि की अनुभवी लेखनी ने। केवल समस्याओं को उभारा ही नहीं, कहीं-कहीं उनका समाधान भी कवि देता गया है । यथा, शकार-त्रय के सूक्ष्मार्थ बताते हुए कवि कहता है : "शाश्वत शान्ति की शाला' !/'स' यानी/समग्र का साथी जिसमें समष्टि समाती।" (पृ. ३९८) इन पंक्तियों में गाँधीजी के सर्वोदय के विचारों की झंकार-सी उभर आती है। कही-कहीं प्रकृति चित्रण भी कितना सुन्दर रूप ले उभरा है, यथा : "मखमल मादर्व का मान/मरमिटा-सा लगा। आम्र-मंजुल-मंजरी/कोमलतम कोंपलों की मसृणता भूल चुकी अपनी अस्मिता यहाँ पर,/अपने उपहास को सहन नहीं करती लज्जा के घूघट में छुपी जा रही है,/और/कुछ-कुछ कोपवती हो आई है, अन्यथा/उसकी बाहरी-पतली त्वचा/हलकी रक्तरंजिता लाल क्यों है?"(पृ.१२७) प्राकृतिक उपचार तथा अंकों के महत्त्व पर भी कवि ने संकेत किया है, जो उनके बहुमुखी ज्ञान का परिचायक है। काव्य की भूमिका विशेष महत्त्व की है। जिस प्रकार नाविक को कंपास दिशा दर्शन कराता है, उसी प्रकार काव्य में पाठक को क्या मिलेगा तथा पाठक की दृष्टि किधर केन्द्रित होनी चाहिए, यह दिशा-संकेत भूमिका में स्पष्ट मिल जाता है।
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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