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मूकमाटी-मीमांसा :: 429
अनुपम पहलुओं से निखर आता है,
पावन जीवन की अब शान का कारण है।" (पृ. १६१-१६२) खण्ड तीन 'पुण्य का पालन : पाप- प्रक्षालन' है । इस खण्ड की शुरूआत में ही आचार्यश्री ने जल की विप्लवी कहानी प्रस्तुत कर धरती की सम्पन्नता और हिमशीतल एवं निष्पन्द आकुलता का वर्णन किया है।
यहाँ जीवनबोध और सौन्दर्यबोध के द्वारा चारित्र्य गति की समीक्षा है । उसके मानदण्ड मानवीय उत्कर्ष की सम्भावनाओं पर अवलम्बित हैं। कवि ने प्रकृति के सौन्दर्य और उसकी क्रियाशक्ति का निरूपण भी मानवीयता के मूलभूल सौन्दर्य सिद्धान्तों को आधार मान कर किया है। यहाँ सौन्दर्यतत्त्व एक मानवीय स्तर है, जिसे समाधि एवं चित्त का सामान्य बोध ही कहा जाएगा।
आचार्यश्री की सिसृक्षा का आधार धर्मानुमोदित मानवीय बोध है । इस खण्ड में इच्छाशक्ति उस गति का पर्याय है जिसके प्रवाह-प्रयत्नों का अर्थ पर-सम्पदा का हरण, संग्रह और मोह तथा मूर्छा-अतिरेक है । यह इच्छाशक्ति मानवचित्त की रसात्मक क्रीड़ा है । जल, जलधि और चन्द्रमा, जो इसके प्रतिमान हैं, अपनी शीतलता और आभा से जगत् को प्रपंचित ही करते हैं। धरा की भाँति इनमें प्रेम, उदारता, दया और कर्तव्यबोध आदि मांगल्य-भाव नहीं होता । मानवीय सौन्दर्य संस्कार की धारणा ही सौन्दर्यतात्त्विक सन्दर्भो में ढलकर 'वन्दे तद्गुणलब्धये' की महत्ता पाती है। यह अध्यात्मवादी उल्लास प्राकृतिक सौन्दर्य से भिन्न किन्तु उसके समानान्तर चलने वाला संवेदन तत्त्व है जिसकी मूल अवधारणा लोककल्याणकारी है।
आचार्यश्री को शुद्ध चैतन्य के विराट् स्वरूप, प्रकृति सौन्दर्य, मिथक और इतिहास की गहराई एवं समाज की सम्भावना तथा चुनौती से इनकार नहीं है । उनका अध्यात्मदर्शन मानवधर्म और उसके समुच्चय से संश्लिष्ट प्रेम की सम्भावनाओं को परखता है, यथा :
0 "फूल ने पवन को/प्रेम में नहला दिया,/और/बदले में
पवन ने फूल को/प्रेम से हिला दिया !" (पृ. २५८) "कुछ पल खिसक गये, कि/फूल का मुख तमतमाने लगा/क्रोध के कारण; पाँखरी-रूप अधर-पल्लव/फड़फड़ाने लगे. क्षोभ से: रक्त-चन्दन आँखों से वह/ऊपर बादलों की ओर देखता है-/जो कृतघ्न कलह-कर्म-मग्न बने हैं;/हैं विघ्न के साक्षात् अवतार, संवेगमय जीवन के प्रति/उद्वेग-आवेग प्रदर्शित करते,/और
जिनका भविष्य भयंकर,/शुभ भावों का भग्नावशेष मात्र !" (पृ. २६०) धर्म तथा मानवीय मूल्यों के प्रति निरन्तर सजग आचार्यश्री की रचनाओं में निर्धारित और निश्चित अवधारणाएँ हैं, पर, बिम्बों, प्रतीकों और शैली के वर्णन में अनुभूत सत्य जिस अर्थ की प्रतीति कराते हैं, उन्हें देखकर कहा जा सकता है कि कलात्मक सिद्धान्तों से अनुप्राणित मानवीय परिप्रेक्ष्य को रेखांकित करते हुए जैन धर्म के बुनियादी तत्त्वों का इतना विस्तृत चिन्तन पहली बार हुआ है।
बिम्बों की अर्थच्छटाएँ, अर्थ ध्वनियाँ सचमुच जीवन के नाना रूपों, सृष्टि के विविध प्रश्नों और संस्कृति के रूपाकारों को विस्तार देती हैं। संवेदना का घनत्व मार्मिक बिम्बों के माध्यम से रेखांकित होता है।
धरती से कवि का गहरा लगाव विश्वास, आशा, प्रेम, उदारता, सहिष्णुता, करुणा आदि मूल्यों की एक