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________________ 430 :: मूकमाटी-मीमांसा शाश्वत प्रतिकृति के रूप में प्रस्तुत है । बिम्बों में निहित प्रकृति का सौन्दर्य प्रतीयमान अर्थ के रूप में मानवीय व्यथा एवं राग को व्यक्त करता है। 'मूकमाटी' में प्रकृति और मानव व्यवहार का आद्यन्त वर्णन मिलता है । प्रकृति की मानवीय नियति और उन्मुक्त सौन्दर्य एवं प्रेम की प्रगाढ़ता ही माटी में घुल कर अक्षय मंगल घट का शृंगार करते हैं। इन विभूतियों से समृद्ध मंगल घट पूर्णता का प्रतीक है और जन-जीवन की साधना एवं समर्पण का साक्ष्य है । कवि का कथन है : "जल और ज्वलनशील अनल में/अन्तर शेष रहता ही नहीं साधक की अन्तर-दृष्टि में।/निरन्तर साधना की यात्रा भेद से अभेद की ओर/वेद से अवेद की ओर/बढ़ती है, बढ़नी ही चाहिए अन्यथा,/वह यात्रा नाम की है/यात्रा की शुरूआत अभी नहीं हुई है ।" (पृ.२६७) आत्म-अवसाद के क्षरण और आत्मा की शुद्ध, स्वभाव दशा की प्राप्ति इस यात्रा की तलाश है । इन प्रवृत्तियों की उपलब्धियों की पड़ताल अन्तिम चतुर्थ खण्ड में मिलती है। चतुर्थ खण्ड ‘अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' में जैन दर्शन का तात्त्विक विवेचन संयम और तपश्चर्या के अर्थ में मिलता है। कवि जहाँ एक ओर प्रकृति से गहरा लगाव प्रकट करता है वहीं दूसरी ओर साधना की शक्ति का उन्मेष उसके विराग को पुष्ट करता है। अर्थवान् संकेत संयम, यम-नियम आदि का दिशाबोध कराते हैं। साधना का रहस्य धीरे-धीरे खुलता है और तप, ध्यान, सामायिक, समाधि तथा ज्ञान के अन्त:चक्षु खोलते हुए शिल्पी की अविचल शान्ति के पथ को प्रशस्त करता है। जीवात्मा चौदह गुणस्थानों पर शनैः-शनै: चढ़कर अपने शुद्धरूप को प्राप्त कर लेती है। इस खण्ड में साधना के विविध अंगों और उपांगों का साम्य धरती की उदारता, सहृदयता आदि से कर आचार्यश्री ने निरन्तर मानवीय धरातल को स्पर्श किया है। अवाँ में लगने वाली लकड़ी साधक की नियति का पर्याय बन कर कुम्भ की परिपक्वता के लिए मिटना चाहती है। मंगल घट की समृद्धि और विविधता में अपना ताप पाना चाहती है । शक्ति और ताप की प्रखरता लकड़ी के जीवन की सार्थकता है । इसके ताप के बिना कुम्भ और कुम्हार का श्रम अधूरा है। संकल्प लचीला है । लकड़ी कुम्हार से कहती "और सुनो,/यहाँ बाधक-कारण और ही है,/वह है स्वयं अग्नि । मैं तो स्वयं जलना चाहती हूँ/परन्तु/अग्नि मुझे जलाना नहीं चाहती है इसका कारण वही जाने ।" (पृ. २७५) अग्नि प्रज्वलन के पश्चात् अवाँ में उठा धुआँ वीतरागी का ही जीवन-चरित है, जो मनोविकारों से मुक्त होकर तप, ध्यान, सामायिक और समाधि तक की आध्यात्मिक यात्रा कर आत्म-करुणा के भाव से लोगों में कल्याण की वर्षा करता है। ___ इस खण्ड में साधना के ज्ञात-अज्ञात पक्षों का मूल्यांकन मिलता है। साधना के प्रकाश-पुंज में यम, नियम, प्राणायाम, निरोग, योग आदि सब कारण द्रवणशील पदार्थ की भाँति पच कर उसी प्रकाश-पुंज में मिल जाते हैं। कारक तत्त्वों का संविलयन साधना के आलोक को संवर्धित कर साधक में ज्यादा जटिल एवं विस्तृत राग-अनुराग की सूक्ष्मताओं को गोचर करता है । आत्म-भाव का यह चरम परिष्कार है और साधक के समर्पण का अनन्त विस्तार । "भाँति-भाँति की लकड़ियाँ सब/पूर्व की भाँति कहाँ रहीं अब !
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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