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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 427 'मूकमाटी' में माटी की वेदना में सांस्कृतिक पक्ष, आत्म-संघर्ष और करुणा का भाव मानवीयता के प्रति सच्ची निष्ठा का परिणाम है। सूर्य की प्रथम किरण की ज्योतिर्मय आभा यहाँ आत्मसाधना के पथ को प्रशस्त कर तथा सत्य के साक्षात्कार की संकल्प शक्ति को तीव्र से तीव्रतर रूप में साधक बनकर शिल्पी का कर्म-प्रवाह बन जाती है । यह संकल्प-शक्ति साधक को बोध और समाधि की साधना को रसहीन होने से बचाती है। इन मूल्यों से जुड़े अनुशासन प्रतिग्रह साधक और शिल्पी की स्वाभाविक प्रकृति बन जाते हैं । और समाधि के साधक की भाँति माटी को मंगल घट का आकार पाने के लिए परिशोधन की विभिन्न प्रक्रियाओं से गुज़रना पड़ता है। तभी न गलने वाले कंकरों से मुक्त, वर्णसंकर से विहीन शुद्ध सात्त्विक माटी को कूटकर शिल्पी उसे ज्ञान की गरिमा और साधना की शक्ति को स्निग्ध कर मंगल घट की संरचना का शाश्वत विधान करता है । खण्ड-दो ‘शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं" एक प्रतीकवादी विमर्श है । यहाँ प्रतीक की अवधारणा इतनी व्यापक है कि सांस्कृतिक अस्मिता, मानवीय समग्रता और आत्मबोध आदि अलग-अलग तथ्य धूल, फूल और शूल के रूप में अभिव्यक्ति पाते हैं । सत्य, अहिंसा, करुणा आदि चिन्तन के महत्त्व को प्रकट करने वाले बिम्बों में इन्हीं की समस्याओं पर पुनर्विचार का प्रतीकीकरण है। सामाजिक सरोकारों, सांस्कृतिक गौरव और सत्य के मंगल घट में प्राणप्रतिष्ठा हेतु कुम्हार माटी में विद्यमान समग्र तत्त्वों का परीक्षण कर उसे अवाँछनीय तत्त्वों से रिक्त कर देता है । इस प्रकार मानव जीवन का चरम अभीष्ट जटिलतर मूल्यों का बार-बार परीक्षण कर श्रेय और प्रेय से पुष्ट मंगल घट का रचनाकर्म कुम्हार की महत्ता को चिह्नित करता है । आचार्यश्री का यह भावुकतापूर्ण चिन्तन ज्ञान और जिज्ञासा का ही नहीं, प्रेरणा का भी विषय है । इसीलिए जीवन के अनुकूल और प्रतिकूल साक्ष्यों को प्रस्तुत कर अन्तस्संघर्ष में व्यंजित होने वाली आकुलताओं का इस खण्ड में गहन विमर्श मिलता है । आकुलताओं के अनेक स्तर हैं- संस्कारों की हीनता की आकुलता, विषमता और विशृंखलता की आकुलता, , सात्त्विकता की चिन्ता । जन-जन में व्याप्त इस छद्म को दूर कर उसे प्रकृति की शक्ति से प्राणवान् बनाना 'मूकमाटी' की कविता का सांस्कृतिक आधार है । आचार्यश्री का कथन है : 1 " वसन्त चला गया / उसका तन जलाया गया, / तथापि वन-उपवनों पर, कणों- कणों पर / उसका प्रभाव पड़ा है प्रति जीवन पर यहाँ;/ रग-रग में रस वह / रम गया है रक्त बनकर ।" (पृ. १८६) आचार्यश्री ने संकीर्णताओं और विषमताओं को मिटाकर 'सम्यक् दर्शन' का अनुगमन प्रवृत्ति और निवृत्तिमूलक दोनों विचारकों के लिए श्रेयस्कर माना है। जैन दर्शन में स्वीकृत मूल्य मानवीय सत्य का साक्षात्कार है । रागविराग के समग्र विश्लेषण में यही वह जागृत शक्ति है जो ऋषि और मनीषी से साधक को जोड़ती है। प्रकृति तथा पुरुष के सम्बन्धों से संश्लिष्ट आख्यान और मिथक के द्वारा आचार्यश्री ने आत्मगत शक्तियों की पुष्टि को प्रमाणित किया है। यहाँ यथासम्भव और यथाप्रमाण उन मानवीय मूल्यों को चिह्नित करना है जो संवेदनशीलता और दार्शनिक अर्थों में व्यक्ति को अधिक समर्थ बनाते हैं । शास्त्रीय मान्यताओं को प्रमाणस्वरूप प्रस्तुत कर मानवीय मूल्यों की तलाश भारत- - भूमि के सर्जनात्मक चिन्तन को उद्घाटित करना ही भारतीय जन-जीवन में अधिक से अधिकतर विशालता की भावना का अवतरण करना है । उदाहरणार्थ : "लोक- ख्याति तो यही है / कि / कामदेव का आयुध फूल होता है
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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