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________________ 426 :: मूकमाटी-मीमांसा 'मूकमाटी' काव्य चार खण्डों में विभाजित है। प्रथम खण्ड 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ', द्वितीय खण्ड 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं, तृतीय खण्ड 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' और चतुर्थ खण्ड 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' शीर्षक में विभक्त है। 'मूकमाटी' में भारतीय समाज, संस्कृति और उसके सौन्दर्य का जैन धर्म के सन्दर्भ में भी वर्णन है। उसका मूल भाव है-समग्र जीवन प्रणाली का परिष्कार । निशा का अवसान और उषा की शान । पूरे प्रसंग के भावात्मक विवेचन में सैद्धान्तिक नियति और उसके प्रत्यक्षीकरण की कामना परिलक्षित होती है। इसीलिए गहरे भावान्तरों में विद्यमान जनजीवन की छवि और उससे उमड़ता करुणा का भाव रचना-यात्रा का प्रस्थानबिन्दु है । इन भावों के प्रत्यक्षीकरण हेतु कवि जिन बिम्बों की तलाश करता है, उसमें जीवन और प्रकृति के सत्य एक साथ खुलते हैं। प्रकृति का कमनीय सौन्दर्य प्रेम के निःस्पृह अलंकरण से विभूषित होकर ऋषि की महिमा का पर्याय बन जाता है। उषा की चिन्मय लाली विराट् परिप्रेक्ष्य में मानवीय कामना की दीप्ति बन माटी के अर्थ की गहनता को बढ़ाती प्रथम खण्ड में वर्णित प्रकृति का सौन्दर्य विभिन्न सन्दर्भो में, बहुआयामी अर्थ में, लोकजीवन के सामूहिक अवचेतन की सम्यक् एवं व्यापक तलाश प्रतीत होता है । सूर्य की प्रथम अरुणिम किरण का संस्पर्श माँ की गोद में मचलते शिशु की भाँति सारे जगत् को मृदुल किलकारियों से भर देता है। रागात्मक सम्भावनाओं के विपुल उल्लास में डूबी कुमुदनी और कमलिनी के प्रेम की परिव्याप्ति एक चुनौती बन जाती है। ठीक नारी जीवन के स्वाभाविक एवं द्वन्द्वात्मक रिश्तों की भाँति प्रकृति का प्रेम भी परिभाषित होता है। आचार्यश्री ने प्रकृति के माध्यम से नारी हृदय की व्याकुल वेदना को प्रत्यक्ष कर, स्वकीयता के भीतर छिपी दयनीयता को अंकित किया है : "अबला बालायें सब/तरला तारायें अब/छाया की भाँति अपने पतिदेव/चन्द्रमा के पीछे-पीछे हो/छुपी जा रहीं कहीं 'सुदूर "दिगन्त में ""/दिवाकर उन्हें देख न ले, इस शंका से ।” (पृ. २) यहाँ यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि मानव जीवन की संवेदना और निहित सचाई को आत्मसात् कर आचार्यश्री ने मानवीय प्रश्नों को अपने चिन्तन का अनिवार्य हिस्सा माना है। इसीलिए माटी दार्शनिक विवेक के साथ नारी के संघर्ष की कथा का बयान कर समाज में उसकी उज्ज्वल छवि की कामना करती है। नारी संघर्ष पर आधारित यह समाज-चिन्तन आचार्यश्री की मानवीय चेतना का परिणाम है। 'मूकमाटी' के प्रथम खण्ड में मानव जीवन के मूल्यों और उसकी छुअन की पवित्रता एवं अम्लानता का सर्वोपरि महत्त्व है । जैन धर्माचार्य इसे ही 'सम्यक्-ज्ञान' का अंग मानते हैं। कलियुग और सत्-युग की व्याख्या में दार्शनिक वैशिष्ट्य के साथ जीवन की स्थूल संवेदनाओं में आस्था और विश्वास की अनिवार्यता के दर्शन होते हैं। उदाहरणार्थ : "एक का जीवन/मृतक-सा लगता है/कान्तिमुक्त शव है, एक का जीवन/अमृत-सा लगता है/कान्ति-युक्त शिव है। शव में आग लगाना होगा,/और/शिव में राग जगाना होगा। समझी बात, बेटा!" (पृ. ४)
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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