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________________ 418 :: मूकमाटी-मीमांसा "बदले का भाव वह राहु है/जिसके/सुदीर्घ विकराल गाल में छोटा-सा कवल बन/चेतनरूप भास्वत भानु भी अपने अस्तित्व को खो देता है।” (पृ. ९८) इसलिए व्यक्ति को प्रतिशोध भाव से बचना चाहिए। भारतीय संस्कृति में वर्णित आर्येतर संस्कृति में गन्धर्वो के देवता के रूप में कामदेव की स्थापना है, जो मनसिज है। जैन धर्म एवं बौद्ध धर्म में 'मार विजय' के अनेक प्रसंग वर्णित हैं। पौराणिक गाथाओं में भी ‘मदन संहार' का अनेक स्थलों पर चित्रण मिलता है। शिव के प्रभाव से अनंग बन जाने वाले कामदेव की तुलना कवि ने शिव से की है : “कामदेव का आयुध फूल होता है/और/महादेव का आयुध शूल । एक में पराग है/सघन राग है/जिस का फल संसार है एक में विराग है/अनघ त्याग है/जिसका फल भव-पार है।" (पृ. १०१) पश्चिमी सभ्यता की ओर लोलुप दृष्टि से देखने वाले, और उसका अन्ध अनुसरण करने वाले व्यक्तियों के लिए कवि ने जो दृष्टिकोण रखे हैं, उन्हें नकारा नहीं जा सकता । एक ओर है भौतिक जगत् का, दैहिक सुख का, धन के दर्प का क्षणिक आनन्द तो दूसरी ओर है मन की शान्ति तथा सुख; एक ओर है मानवीयता की विनाश लीला की विभीषिका का ताण्डव नर्तन तो दूसरी ओर है मानव मूल्यों के प्रति आस्था एवं विश्वास; एक ओर है वैभव एवं आडम्बर का कुण्ठित जीवन तो दूसरी ओर है सर्वस्व त्याग कर दिशाओं को ही अम्बर मान कर लोक कल्याण के पथ पर अग्रसित होने वाला जीवन । कवि का यह तुलनात्मक दृष्टिकोण पौर्वात्य और पाश्चात्य सभ्यताओं का एक इतना महत्त्वपूर्ण अन्तर स्पष्ट करता है, जिसके द्वारा हम अपनी संस्कृति और सभ्यता के गौरव को गहनता से स्वीकार करने को उद्यत हों। कवि ने लोक कल्याण को प्रमखता दी है। बौद्ध धर्म के जनक स्वयं बद ने कहा था : "चरथ भिक्खवे बहजनहिताय परिजन-सुखाय"। यह परिजन सुख ही मानव धर्म है और यही वास्तविक मानसिक सुख-शान्ति का प्रवेश द्वार है। व्यक्ति इहलोक के सुख की तुलना में पारलौकिक सुख की चिन्ता नहीं करता, किन्तु आचार्यप्रवर का कहना है कि सामान्यतः पारलौकिक सुख ही अभीष्ट होना चाहिए और यह ऐहलौकिक कर्मों द्वारा प्राप्त होता है अर्थात् कर्म के महत्त्व पर कवि की दृष्टि है । जो कर्म 'स्वान्तःसुखाय' न हो, 'बहुजन-सुखाय' हो वही कर्म श्रेष्ठ होते हैं और ऐसे ही कर्मयोगी पारलौकिक सुख भोग कर पाते हैं, मोक्ष के अधिकारी होते हैं । भक्तिकालीन सभी भक्त कवियों ने इस आवागमन के चक्र से बचने का एक मात्र उपाय ऐहलौकिक सुख का त्याग बताया है । कवि ने इसी को अभिव्यक्ति दी "हे काया ! जल-जल कर अग्नि से,/कई बार राख, खाक हो कर भी अभी भी जलाती रहती है आतम को/बार-बार जनम ले-ले कर !" (पृ. ११२) शिल्पी माटी को पैरों तले रौंदता है । चरण श्रम के प्रतीक होते हैं। हाथ तो माँगते हैं, अत: कायर होते हैं। किसी के समक्ष हाथ फैलाना हीन होना है, स्वाभिमान का त्याग करना है, जो मृत्यु तुल्य होता है। इसी प्रकार वाचा पर वश रखने से दुःखों का अन्त तथा सुख की सम्भावना बढ़ जाती है और चेतना के नए आयाम सामने आ जाते हैं : "तन शासित ही हो/किसी का भी वह शासक-नियन्ता न हो।” (पृ. १२५) कवि ने कुछ पारिभाषिक शब्दों की भी सुन्दर व्याख्या की हैं :
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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