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________________ “पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जाति । देखत ही छिप जाँहिंगे, ज्यूँ तारा परभाति ॥ 27 मूकमाटी-मीमांसा :: 417 सूर और तुलसी ने भी जीवन की क्षणभंगुरता को दृष्टि में रख, व्यक्ति को इस जीवन में मानव धर्म का निर्वाह करने की बात कही है । छायावादी कवयित्री महादेवी भी इस क्षणभंगुरता को ध्यान में रख कर कहती हैं : " विस्तृत नभ का कोई कोना, / मेरा न कभी अपना होना, परिचय इतना इतिहास यही / उमड़ी कल थी मिट आज चली !" प्रेम की जो अजस्र धारा सूफी प्रेमाख्यानक काव्यों से प्रवाहित होती है, जिसमें "वसुधैव कुटुम्बकम्" की भावना दृष्टिगोचर होती है, उसे आज भी जीवन की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता माना जाता है। यह प्रेम का वह उच्च स्वरूप है, जिसके कारण आज मानव 'मानव' कहलाने योग्य है । सन्दर्भ बदलते हैं, किन्तु अर्थ वही रहता है। कवि ने इसे एक नवीन अभिव्यक्ति दी है : 66 "वसुधैव कुटुम्बकम्" / इसका आधुनिकीकरण हुआ है वसु यानी धन- द्रव्य / धा यानी धारण करना / आज धन ही कुटुम्ब बन गया है / धन ही मुकुट बन गया है जीवन का ।" (पृ. ८२) और आज जो भाई के रक्त का प्यासा भाई हो रहा है, पिता-पुत्र, सगे-सम्बन्धी, बन्धु बान्धव भी परस्पर ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा और प्रतिशोध की अग्नि में दग्ध हो रहे हैं, आपाद - मस्तक असत्, बेईमानी, काला बाजारी, भ्रष्टाचार में अवगाहन कर रहे हैं तो क्या आज भी इन बदले हुए सन्दर्भों में यह उक्ति चरितार्थ हो सकती है ? आचार्यश्री इसी की आवश्यकता को अभिव्यक्ति देने के लिए माटी और मछली के संवाद द्वारा दया, धर्म, प्रेम, अहिंसा जैसे मानव धर्म की ओर सामान्य जन को खींचकर लाना चाहते हैं । माटी में निर्मल जल मिला, उसे आकार देना भी एक अध्यात्म की प्रक्रिया है। जब तक निर्मल जल रूपी ब्रह्म का निर्मल ज्ञान व्यक्ति को नहीं मिलता, तब तक वह न तो स्वयं को पहचानता है और न ब्रह्म को । निर्मल ज्ञान की प्रतीति शिल्पी गुरु द्वारा होती है, जो अपनी स्थिति से सन्तुष्ट रहता है । इस गुरुज्ञानी की संगति मात्र से ही हृदय का समस्त कालुष्य का परिक्षालन हो जाता है और जीव को एक नए परिवर्तन का आभास होता है : “ज्ञानी के पदों में जा / अज्ञानी ने जहाँ / नव-ज्ञान पाया है। अस्थिर को स्थिरता मिली / अचिर को चिरता मिली नव-नूतन परिवर्तन..!” (पृ. ८९) और यही परिवर्तन उसे प्रेम और श्रेय के मार्ग में प्रविष्ट करा उसे ही मानव का स्वभाव बना देता है । पुरुष और प्रकृति का मिलन ही इस सृष्टि का सार है। पुरुष का निवास ब्रह्माण्ड में है । शक्तिरूपिणी प्रकृति जब षट्चक्रों से ऊर्ध्वगति को प्राप्त कर पुरुष से जा मिलती है तो मानव साधना के जिस सर्वोच्च शिखर पर जा पहुँचता है, तब वहाँ सांसारिक विषय-वासनाएँ, इन्द्रिय सुख, मोह, लोभ, क्रोध और मद आदि सब अपना अर्थ खो चुकते हैं, किन्तु सभी तो उस उच्च स्थिति तक नहीं पहुँच पाते। जो अज्ञानी हैं, वे अपनी स्थिति को विस्मृत कर प्रतिशोध, ईर्ष्या की अग्नि में जलते हैं। वर्तमान समाज में काँटे का उद्धरण दे कवि ने जो चित्र अंकित किया है, उसे चित्रित करने का अर्थ ही यह है कि कवि व्यक्ति को समझा सके कि उसके जीवन का उद्देश्य यह नहीं है :
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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