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________________ 410 :: मूकमाटी-मीमांसा संक्षेप में उपर्युक्त विशेषताओं को कहूँ तो यह कि आध्यात्मिक उपदेश को लेखक ने भाषा पर हर प्रकार के अधिकार के साथ प्रस्तुत किया है । 'मूकमाटी' एक रूपक गाथा है, सांगरूपक । ___ इसमें निस्सन्देह दो मत नहीं हो सकते कि आचार्य विद्यासागरजी द्वारा रचित महाकाव्य 'मूकमाटी' अनेक दृष्टियों से स्तुत्य है। धर्म और दर्शन आज के युग में मनोरंजन का रूप ले चुके हैं। गम्भीर अध्यात्मपरायण जो भी आचार्य हैं, महात्मा हैं, वे चिन्तित हैं युग की इस विकृत प्रवृत्ति से। किसी न किसी आश्रय से, माध्यम से, जनता का, विशेषकर समझ सम्पन्न लोगों का मार्गदर्शन करने के लिए ऐसे घोर कलिकाल में भी कुछ गिने-चुने सन्त कृपापूर्वक लगे हुए हैं। इस सम्बन्ध में आचार्यजी के शब्द हैं : "सत् की खोज में लगी दृष्टि ही/सत्-युग है, बेटा !/और ! असत् विषयों में डूबी/आ-पाद-कण्ठ सत् को असत् माननेवाली दृष्टि/स्वयं कलियुग है बेटा !" (पृ. ८३) सन्त कविता के लिए कविता नहीं लिखते । कबीरदासजी का लक्ष्य काव्य नहीं था । कथ्य ही सन्तों के लिए प्रमुख होता है। अभिव्यक्ति स्वयमेव काव्य बन जाय, ये दूसरी बात है । मूकमाटी भी महाकाव्य के रूप में सचेतन हो उठी है, किन्तु मूल कथ्य इस का वह सन्देश है जो अध्यात्मपरक लक्ष्य रूप से निश्चित रूप से समन्वित है। मुक्त छन्द में लिखा गया यह महाकाव्य अलंकार, नाटकीय संवाद एवं शब्दों के चमत्कारपूर्ण स्थलों से भरपूर है। मनोरंजन के लिए भी अनेक स्थल हैं। ज्ञानवर्द्धक सूचना देने वाली अनेक बातें हैं, लेकिन ये सब मेरी दृष्टि से गौण वर्णनों में भावुकता का भी पर्याप्त समावेश है। अनेक प्रकार की सांसारिक व्यवहार की बातों के भी उपदेश हैं। कई जगह आचार्यजी ने अर्थों की अपने ढंग से उद्भावना की है। शब्दों को उलट कर अनेक जगह रखा गया है, यथा: नदी-दीन, राही-हीरा, राख-खरा आदि । आचार्यजी का मुख्य सन्देश ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही उद्घोषित है : "तन और मन को/तप की आग में/तपा-तपा कर/जला-जला कर राख करना होगा/तभी कहीं चेतन-आत्मा/खरा उतरेगा।" (पृ. ५७) .. 'मानस तरंग'- भूमिका में कवि ने स्वयं इस काव्य सृजन का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए कहा है : "...जिसने शुद्ध सात्त्विक भावों से सम्बन्धित जीवन को धर्म कहा है; जिसका प्रयोजन सामाजिक, शैक्षणिक, राजनैतिक और धार्मिक क्षेत्रों में प्रविष्ट हुई कुरीतियों को निर्मूल करना और युग को शुभ-संस्कारों से संस्कारित कर भोग से योग की ओर मोड़ देकर वीतराग श्रमण-संस्कृति को जीवित रखना है।" आचार्य विद्यासागरजी के अनुसार : "...श्रमण-संस्कृति के सम्पोषक जैन-दर्शन ने बड़ी आस्था के साथ ईश्वर को परम श्रद्धेय-पूज्य के रूप में स्वीकारा है, सृष्टि-कर्ता के रूप में नहीं। इसीलिए जैन-दर्शन, नास्तिक दर्शनों को सही दिशाबोध देनेवाला एक आदर्श आस्तिक दर्शन है।" आचार्यजी के द्वारा उद्धृत 'तेजोविन्दु-उपनिषद्' (५/ ५१-५२) के अनुसार : "...ईश्वर को सृष्टि-कर्ता के रूप में स्वीकारना ही, उसे नकारना है, और यही नास्तिकता है, मिथ्या है। ...ब्रह्मा को सृष्टि का कर्ता, विष्णु को सृष्टि का संरक्षक और महेश को सृष्टि का विनाशक मानना मिथ्या है, इस मान्यता को छोड़ना ही आस्तिकता है।"
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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