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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 411 ग्रन्थ के प्रस्तवन' लेखक लक्ष्मीचन्द्र जैन के अनुसार : "...आचार्य श्री विद्यासागर की कृति 'मूकमाटी' मात्र कवि-कर्म नहीं है, यह एक दार्शनिक सन्त की आत्मा का संगीत है - सन्त जो साधना के जीवन्त प्रतिरूप हैं और साधना जो आत्म-विशुद्धि की मंज़िलों पर सावधानी से पग धरती हुई, लोकमंगल को साधती है।" अनुभूति की अन्तरंग लय पूरे काव्य में व्याप्त है । माटी जैसी तुच्छ अकिंचन, पददलित वस्तु महाकाव्य का विषय बने, यह नितान्त अनोखी कल्पना, निर्मल वाणी और सार्थक सम्प्रेषण के योग से, मुक्त छन्द में निर्बाध साकार प्रवाहित हुई है। आधुनिक जीवन के अभिनव शास्त्र को माटी रूपी नायिका, कुम्भकार रूपी नायक के साथ विचार विमर्श का विषय बनाती है । वार्ता दोनों के मध्य कहीं काव्य की ओर झुक जाती है, कहीं अध्यात्म की ओर । फलस्वरूप काव्यसृजन और आध्यात्मिक मौलिक सिद्धान्त- दोनों ही दृष्टियों से अनेक महत्त्वपूर्ण पक्ष अपना सौन्दर्य बिखेरते चलते हैं। पूरा ग्रन्थ चार खण्डों में विभाजित है : १. संकर नहीं : वर्ण-लाभ २. शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं ३. पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन ४. अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख आचार्यजी के हृदय में पीड़ा है : "हे स्वामिन् !/समग्र संसार ही/दुःख से भरपूर है यहाँ सुख है, पर वैषयिक/और वह भी क्षणिक !" (पृ. ४८४-४८५) और उनकी निश्चित आस्था है : "बन्धन-रूप तन,/मन और वचन का आमूल मिट जाना ही/मोक्ष है।" (पृ. ४८६) दोषों के जल जाने पर ही वास्तविक जीवन जीने का सामर्थ्य मनुष्य हासिल करता है : "मेरे दोषों को जलाना ही/मुझे जिलाना है।" (पृ. २७७) और यह सब ज्ञान उपलब्ध होता है सन्तों के नैकट्य से : "सन्त-समागम की यही तो सार्थकता है संसार का अन्त दिखने लगता है।" (पृ. ३५२) क्षमा, मैत्री, बोध का विकास, क्रोध का शमन-ये सब ही जीवन को जीने योग्य बनाते हैं। इसलिए : “पापी से नहीं/पाप से/पंकज से नहीं,/पंक से/घृणा करो!"(पृ. ५०-५१) तन और मन को तप की आग में जो जलाता है, समयोचित कार्य जो करता है उसको ही शान्ति, सुख, आनन्द, दिव्य-भाव प्राप्त होता है : 0 “नर से/नारायण बनो/समयोचित कर कार्य।" (पृ. ५१) ० "तन और मन को/तप की आग में/तपा-तपा कर जला-जला कर/राख करना होगा।" (पृ. ५७)
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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