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388 :: मूकमाटी-मीमांसा
“यद्यपि इनका नाम पयोधर भी है,/तथापि विष ही वर्षाते हैं वर्षाऋतु में ये ।/अन्यथा,/भ्रमर-सम काले क्यों हैं ? यह बात निराली है कि/वसुधा का समागम होते ही 'विष' सुधा बन जाता है/और यह भी एक शंका होती है, कि
वर्षा-ऋतु के अनन्तर शरद्-ऋतु में/हीरक-सम शुभ्र क्यों होते ?"(पृ. २३०) जीवन का विष भी कब अमृत बन जाता है, यह हम इससे देख सकते हैं। आचार्यश्री संस्कृत के पण्डित हैं फिर भी 'गर यक़ीन' (पृष्ठ १५५) जैसे शब्दों का प्रयोग कितनी कुशलता से किया है, यह वहाँ पर देखा जा सकता है। ये शब्द संस्कृत भाषा के नहीं हैं फिर भी उनका उपयोग सुचारु भाव से किया है। वर्ड्सवर्थ ने बताया है : “All good poetry is the spontaneous over flow of powerful feeling."- का दर्शन यहाँ होता है न ?
आचार्य श्री विद्यासागरजी ने 'मूकमाटी' द्वारा समग्र जीवन का दर्शन कराया है। जिस कृति में जीवन दर्शन होता है उस कृति में महाकाव्य की ताक़त होती है । मेथ्यु आर्नल्ड ने बताया है कि सृजन में केवल प्रेरणा आवश्यक नहीं है परन्तु विद्वत्ता, अभ्यास तथा कल्पना की भी ज़रूरत होती है, इस दृष्टि से 'मूकमाटी' पूर्णकक्षा का महाकाव्य है ।
पृ. ३४३ कायोत्सर्गका विसर्जन.-- संयमोपकरण दिया 'मयर-पखों का,जो मृदुल कोमललपुल है।
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