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________________ 'मूकमाटी': जीवन दर्शन की अनुभूति डॉ. नरेश भट्ट पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी दिगम्बर जैन समाज के अग्रणी विद्वान् आचार्य हैं। मनुष्य के मुख से ही मनुष्य में कितना दैवत्व है, यह मालूम होता है, यह हम आचार्यश्री की मुखमुद्रा से ही कह सकते हैं। आचार्य श्री विद्यासागर की हिन्दी, प्राकृत, संस्कृत और अंग्रेजी में बहुत रचनाएँ हैं परन्तु मूकमाटी' महाकाव्य में आचार्यश्री ने माटी का सहारा लेकर सब कुछ कह दिया है। ___संस्कृत में महाकाव्य का लक्षण सुनिश्चित किया है लेकिन 'मूकमाटी' विशिष्ट प्रकार का महाकाव्य है । मिट्टी जैसी क्षुल्लक- क्षुद्र चीज़ को केन्द्र में रखकर आचार्यजी ने जीवन लक्ष्य स्पष्ट किया है। प्रस्तवन' में श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन ने बहुत अच्छा बताया है : “ये कुछ संकेत हैं 'मूकमाटी' की कथावस्तु के, काव्य की गरिमा-कथ्य के, आध्यात्मिक आयामों, दर्शन और चिन्तन के प्रेरणादायक स्फुरणों के।" यहाँ जीवन दर्शन की अनुभूति होती है। यहाँ केवल आध्यात्मिकता भी नहीं है, अगर ऐसा हुआ होता तो यह महाकाव्य नहीं बन सकता था परन्तु यहाँ शब्दालंकार वा अर्थालंकार के साथ जीवन की भव्यता भी प्रगट हुई है। यह महाकाव्य चार खण्डों में प्रगट हुआ है। हम दृष्टि करेंगे तो यह प्रतीति होगी कि आचार्यजी को कितने विषय का ज्ञान है। यहाँ ऋतु वर्णन है, आध्यात्मिकता है, जीवन क्षणिक है फिर भी उसे सारपूर्ण हम ही बना सकते हैं इसका दर्शन है, योगदर्शन भी है, शास्त्रीय संगीत तथा नृत्य कला का भी आचार्यश्री को परिचय है, यह हम 'मूकमाटी' पढ़कर देख सकते हैं। साहित्य में दो धाराएँ होती हैं-बोधलक्ष्यी साहित्य और ललित वाङ्मय । अँग्रेज विवेचक डी क्विन्सी ने लिखा है : "The function of the first is to teach and the function of the second is to move." लेकिन यहाँ तो आचार्यश्री ने बोध के साथ ललित भावना दोनों दिए हैं। ड्रॉयडन ने बहुत अच्छी बात बताई है कि कलाकार प्रकृति का अनुकरण नहीं करता किन्तु प्रकृति में से कुछ उठाकर अपनी सर्जनात्मकता से कृति में ताकत भरता है । ड्रॉयडन की बात हम यहाँ सच देख सकते हैं, क्योंकि आचार्यश्री ने माटी में ही यह कर बताया है। श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन ने यह ठीक कहा भी है : "माटी जैसी अकिंचन, पद-दलित और तुच्छ वस्तु को महाकाव्य का विषय बनाने की कल्पना ही नितान्त अनोखी है।" यहाँ केवल कविता नहीं है परन्तु आत्मा की आवाज़ है । हम देख सकते हैं : “हाँ ! अब शिल्पी ने/कार्य की शुरूआत में/ओंकार को नमन किया और उसने/पहले से ही/अहंकार का वमन किया है।" (पृ. २८) और देख सकते हैं: "अरे कंकरो!/...भले ही/चूरण बनते, रेतिल; माटी नहीं बनते तुम!" (पृ. ४९) यहाँ हम जीवन दर्शन कर सकते हैं। सेम्युअल बेकेट ने कहा कि आज कल्पना की मृत्यु हो रही है परन्तु आचार्यश्री ने यहाँ जो कल्पना दी है, वह तो देखें:
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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