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हिन्दी साहित्य में एक नई कड़ी जोड़ने वाला महाकाव्य : 'मूकमाटी'
डॉ. राम किशोर शर्मा
भारतीय संस्कृति और वाङ्मय में जैन धर्म, दर्शन तथा साहित्य का अप्रतिम स्थान है। जब धर्म के क्षेत्र में बलि की वेदी पर पशुओं के रक्त की फुहारें ही आग की लपटों की तरह फूटने लगीं तथा प्रकृति और मानव जीवन का सन्तुलन टूटने लगा तो जैन धर्म ने अहिंसा और करुणा का पक्ष लेकर प्राणि मात्र को अभयदान करने वाले प्राणी धर्म की प्रतिष्ठा की पहल की । इस धर्म ने युगीन परिप्रेक्ष्य में जनाकांक्षा के अनुकूल धर्म को नया सन्दर्भ तथा नया अर्थ दिया । जैन तीर्थंकरों, मुनियों तथा चिन्तकों ने अपने मतों, विचारों और सिद्धान्तों को जनभाषा में अभिव्यक्ति देकर जनभाषा को संस्कृति की संवाहिका बनाने का यत्न किया । भाषा तथा बोलियों के परिवर्तन को स्वीकार करते हुए समय-समय पर प्राचीन सिद्धान्तों को नई तथा विकसित भाषा में सजाया गया। अनेक लोक काव्य रूपों तथा छन्दों में धर्म के निगूढ़ भावों को ढालकर जनमानस में उसे सरसता से सम्प्रेषित करने की कला भी उनके पास थी । प्राकृत, अपभ्रंश, पुरानी हिन्दी, ब्रज आदि से होती हुई जैन काव्यधारा खड़ी बोली में भी शुष्क नहीं हुई है । यद्यपि इधर लगभग एक शताब्दी से जनभाषाओं में निबद्ध जैन साहित्य की खोज, अनुशीलन तथा मूल्यांकन का ही दौर चला है किन्तु पूज्यपाद आचार्य विद्यासागरजी के महाकाव्य 'मूकमाटी' के प्रकाशन के बाद यह निर्विवाद रूप से साबित हो गया कि जैन रचनाकारों की मौलिक सृजनशीलता अब भी जीवन्त और सशक्त है ।
में जिस युग में काव्य की संवेदना मानवीय भावों या मानव के सुख-दुःख के संघर्षों तक सीमित थी, उसी युग जैन कवियों ने मानवेतर जगत् के कार्य व्यापारों तथा अन्य प्राणियों की संवेदनाओं को भी अपने काव्य में उजागर करने का सफल प्रयास किया । आधुनिक जीवन में अनेक ऐसी समस्याएँ पैदा हो गई हैं जिनकी गिरफ़्त में आकर मानव जीवन ही संकटग्रस्त हो गया है । उमड़ती हुई विशाल जनसंख्या भरण-पोषण के लिए प्रकृति का शोषण ही नहीं, विनाश किया जा रहा है। पर्यावरण की घनघोर समस्या उत्पन्न हो गई है। संघर्ष, तनाव, कुण्ठा से ग्रस्त मानव एक दूसरे के खून का प्यासा बना हुआ है । मानव की रक्त पिपासा के मूल में उसकी घोर अहंकार वृत्ति है। सारे संघर्षों के बीच में मुख्य रूप से 'मैं बड़ा कि तू' का ही प्रश्न की छाया की तरह व्याप्त है । विनय की पराकाष्ठा, जिसमें व्यक्ति अपनी महानता में लघुता का बोध करता है, आधुनिक समाज में पूरी तरह से लुप्त हो गई है। ईश्वरीय गुरुता का बोध तभी हो सकता है जब मनुष्य को अपनी लघुता का बोध हो । यह लघुता बोध उसे सम्पूर्ण प्रकृति जीवन से जुड़ने तथा अपनी शक्ति के उन्नयन तथा दोषों के परिष्कार की प्रेरणा देता है। उसे अहंकारशून्य भी बनाता है। माटी के माध्यम से कहता है :
“तूने जो/अपने आपको / पतित जाना है / लघु-तम माना है
. तूने / निश्चित रूप से / प्रभु को, / गुरु-तम को / पहचाना है !" (पृ. ९)
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आधुनिक जीवन की अनेक समस्याओं पर दिव्यदृष्टि से विचार प्रस्तुत करने की दिशा में एक मौलिक महाकाव्यात्मक परिणति है 'मूकमाटी', जो कथानक चयन एवं नियोजन के क्षेत्र में क्रान्तिकारी क़दम है । किसी प्रचलित कथा के आधार पर महाकाव्य लिखने की परिपाटी को नकार कर एक अकिंचन, निरीह, पद दलित 'माटी' को महाकाव्योचित गरिमा से सम्पृक्त करने का साहस विद्यासागर जैसा साधक कवि कर सकता है। वर्तमान युग पद दलितों के जागने एवं उठने का युग है। उन्हें दबाने एवं उनके शोषण से शासन तन्त्र का सुख भोगने का युग समाप्त हो