SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 441
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 355 परिवेश की अनगिनत असंगतियों और स्खलनों पर आचार्य विद्यासागर की निगाह गई है। उन लोगों पर व्यंग्य उन्होंने किया है, जो सदा कलह-व्यस्त रहते हैं : O O "" "रह-रह कर कलह / करते ही रहते हैं ये, बिना कलह भोजन पचता ही नहीं इन्हें !" (पृ. २२८) वस्तुत: 'मूकमाटी' का फलक इतना विस्तृत है कि इस महाकाव्य में अनायास ही हमारे वातावरण की असंख्य खूबियाँ और ख़ामियाँ साकार हो गई हैं। व्यंग्याश्रित संवाद इस महाकाव्य में कई हैं, लेकिन कवि की व्यंग्यभाषा शब्द चमत्कार में अधिक भास्वर हुई है। वस्तुत: बोध के सिंचन से आचार्य विद्यासागर की काव्यभाषा में शब्दों के पौधे लहलहाते हैं। शब्दों की गहन साधना उन्होंने की है, परिणामत: व्यंग्य भाषा के अनुरूप शब्दवक्रता उनमें लगातार उपलब्ध है । वीर और अवीर, मरहम और मर - हम जैसे शब्दयुग्म तो समूचे महाकाव्य में बिखरे हुए हैं । शब्दचमत्कार से उपजी अर्थछवि और व्यंग्यात्मकता एक साथ प्रभावित करती है, जैसे : O O 64 'कम बलवाले ही / कम्बलवाले होते हैं ।" (पृ. ९२ ) 64 'वेतन वाले वतन की ओर / कम ध्यान दे पाते हैं ।" (पृ. १२३) 66 'बुरा भी / बूरा - सा लगा है सदा ।” (पृ. ८३) 66 'चरण को छोड़कर / कहीं अन्यत्र कभी भी चर न ! चर न !! चर न !!!" (पृ. ३५९) 'मूकमाटी' में आनुप्रासिक तथा शब्द अर्थ विच्छित्ति के अगणित प्रयोग बिखरे हुए हैं। इन सबने मिलकर कवि आचार्य विद्यासागर की व्यंग्य - विनोदी काव्यदृष्टि को रेखांकित ही किया है। भले ही हास्य और व्यंग्य उनकी उदात्त और विराट् दार्शनिक-आध्यात्मिक चिन्तनधारा के मेल में नहीं है, लेकिन 'मूकमाटी' में अवसर पाते ही उनकी कविसुलभ चेतना ने व्यंग्य - विनोद का आयोजन कर ही डाला है । 00 पृ. ११ इतना ही नहीं, निरंतर अभ्यास के भी स्खलन सम्भव है: बाद O
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy