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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 357 गया है । पद दलितों की संघर्ष चेतना एवं स्फूर्ति को पहचानना तथा प्रतिष्ठित करना ही समकालीन कविता की यथार्थ दृष्टि है। इस यथार्थबोध से रहित कविता युगबोध से कटकर समाप्त हो सकती है। मुनिजी ने समकालीन कविता के मूल धर्म को युग आकांक्षा के परिप्रेक्ष्य में पहचाना और परखा है । इसलिए उन्होंने 'माटी' को महाकाव्य की नायिका बना दिया है, जो अपनी गहन एवं विस्तृत अर्थ व्यंजना में सम्पूर्ण पद दलित, उपेक्षित जनसमाज की महत्ता बोध का प्रतीक बन गई है । महापुरुषों का चरित स्वयं ही महाकाव्य होता है, इसलिए उस पर महाकाव्य रचना सहज सम्भाव्य है । मुनि विद्यासागरजी ने सहज सम्भाव्यता का परित्याग करके कल्पना प्रसूत कथा को महाकाव्य का विषय बनाया है। सरिता तट की मिट्टी को कुम्भकार खोदकर उसे उसकी वर्ण संकरता से मुक्त करके कुएँ से जल खींचकर, मिट्टी को जल मिश्रित करके घड़े का आकार देता है। कवि ने धरती और सागर के सम्बन्धों को भी नए ढंग से समझने और समझाने का प्रयास किया है। महाकाव्य को चार खण्डों में विभाजित किया गया है। पहले खण्ड का नामकरण 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ' किया गया है। प्रकृति चित्रण के साथ ही महाकाव्य के प्रथम खण्ड का उद्घाटन होता है : . “सीमातीत शून्य में/नीलिमा बिछाई, और"/इधर'नीचे/निरी नीरवता छाई।” (पृ. १) सूर्योदय के जागरण काल में संकोचशीला, लाजवती सरिता तट की माटी, धरती माँ के आगे अपना हृदय खोलती है और अपने पतित जीवन से मुक्त होने की आकांक्षा व्यक्त करती है। धरती माँ उसे शाश्वत सत्ता का रहस्य समझाती एवं संगति तथा सत्य-असत्य का बोध कराती है । वह कहती है पतित जीवन से मुक्त होने के लिए : "साधना के साँचे में/स्वयं को ढालना होगा सहर्ष !" (पृ. १०) साधना का यह मूल मन्त्र आधुनिक पीढ़ी से जुड़े उन तमाम नवजवानों के लिए है, जो साधना मार्ग पर प्रवृत्त होते हैं किन्तु थोड़ी-सी फिसलन से घबड़ा जाते हैं : "प्राथमिक दशा में/साधना के क्षेत्र में स्खलन की सम्भावना/पूरी बनी रहती है, बेटा !/...इसीलिए सुनो ! आयास से डरना नहीं/आलस्य करना नहीं !" (पृ. ११) दूसरे खण्ड 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं' में कुंकुम-सम मृदु माटी में शिल्पी के द्वारा छना हुआ निर्मल जल मिलाने का चित्रण है। मनीषी कवि ने इसी खण्ड में बोध और शोध की सूक्ष्म मीमांसा की है। उसकी दृढ़ धारणा है: "बोध के सिंचन बिना/शब्दों के पौधे ये कभी लहलहाते नहीं, .....बोध का फूल जब/ढलता-बदलता, जिसमें वह पक्व फल ही तो/शोध कहलाता है।" (पृ. १०६-१०७) दूसरे खण्ड में ही संगीत, साहित्य, शब्द शक्ति तथा रसों के विषय में नूतन विचार प्रस्तुत किए गए हैं। कवि का कथन “संगीत उसे मानता हूँ/जो संगातीत होता है/और/प्रीति उसे मानता हूँ
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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