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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 343 इसी तरह सत्युग और कलियुग को समझाते हुए महाकवि ने लिखा है : "सत्-युग हो या कलियुग/बाहरी नहीं/भीतरी घटना है वह सत् की खोज में लगी दृष्टि ही/सत् युग है, बेटा!/और असत्-विषयों में डूबी/आ-पाद-कण्ठ सत् को असत् मानने वाली दृष्टि/स्वयं कलियुग है, बेटा !" (पृ. ८३) दूसरे सर्ग का शीर्षक है 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं ।' स्वयं महाकवि ने इस सर्ग का - “अहं का उत्सर्ग किया/सो/ सृजनशील जीवन का/द्वितीय सर्ग हुआ" (पृ. ४८२) इन शब्दों में सारांश अथवा शीर्षक दिया है। इस सर्ग में रूपकों की भरमार है । कथा भाग तो इतना-सा है कि शिल्पी द्वारा माटी में पानी मिलाकर तथा उसे पैरों से खूब रौंद करके लोंदा बना दिया जाता है और चाक पर रखकर उसे घट का रूप दे दिया जाता है। प्रारम्भ में महाकवि ने तन में होने वाले चेतन के निरन्तर नर्तन को देख पाना क्या सम्भव है, इसी को शब्दों में निम्न प्रकार उतारा है : "तन में चेतन का/चिरन्तन नर्तन है य ह/वह कौन-सी आँखें हैं किस की, कहाँ हैं जिन्हें सम्भव है/इस नर्तन का दर्शन यह ?" (पृ. ९०) शिशिर की रात्रि है । शीत से सभी पेड़-पौधों पर हिमपात हो रहा है । वर्षा भी होने लगती है । भयंकर शीत से शरीर में कँपकँपी दौड़ने लगती है, लेकिन उस शिल्पी की ऐसी रात भी सहज रूप में कट जाती है । और पतली-सी चादर ओढ़ कर ही वह सारी रात निकाल देता है । जब माटी शिल्पी से कम्बल ओढ़ने के लिए कहती है तो वह उसका करारा उत्तर देता है, जिसको सुनकर उसे चुप होना पड़ता है : "पुरुष का प्रकृति में रमना ही/मोक्ष है, सार है। और/अन्यत्र रमना ही/भ्रमना है/मोह है, संसार है !" (पृ. ९३) घट निर्माण की इस प्रक्रिया में माटी के साथ एक काँटा आ जाता है। कंकरों को निकालने के पश्चात् भी वह मिट्टी के बीच में बच जाता है। शिल्पी ने माटी के सिर पर कुदाली से प्रहार किए तब उसके सिर पर अनेक चोटें पड़ी । वह क्षत-विक्षत भी हो गया। उसके प्राण कण्ठगत हो जाते हैं। फिर वह शिल्पी से बदला लेने की सोचता है-“शिल्पी को शल्य-पीड़ा देकर ही/इस मन को चैन मिलेगा"(पृ. ९७) । कवि ने इस प्रसंग का सुन्दर वर्णन किया है । शूल और फूल, फूल और शूल की तुलना होने लगती है। और जब वह माटी से कहता है : “शिल्पी कम-से-कम/इस भूल के लिए/ शूल से क्षमा-याचना तो करे, माँ !" (पृ.१०४-१०५) । तो माटी कुम्भकार को क्षमा की मूर्ति कहती है । लेकिन शिल्पी माटी की बात सुन लेता है और सहज कह उठता है : "खम्मामि, खमंतु मे-/क्षमा करता हूँ सबको,/क्षमा चाहता हूँ सबसे, सबसे सदा-सहज बस/मैत्री रहे मेरी !/वैर किससे/क्यों और कब करूं ? यहाँ कोई भी तो नहीं है/संसार-भर में मेरा वैरी!" (पृ. १०५) शिल्पी के क्षमा-याचना करने से शूल भी पश्चाताप करने लगा और अपनी विगत भूलों के कारण उसे अपने आप पर ग्लानि होने लगी। और अन्त में शूल ने शिल्पी से सहज भाव से जानना चाहा कि यह 'मोह क्या बला है और मोक्ष क्या कला है ?' इसका शिल्पी ने बहुत संक्षिप्त, किन्तु अर्थपूर्ण निम्न प्रकार उत्तर दिया :
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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