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________________ : मूकमाटी-मीमांसा 344:: " अपने को छोड़कर / पर - पदार्थ से प्रभावित होना ही मोह का परिणाम है / और / सब को छोड़कर अपने आप में भावित होना ही / मोक्ष का धाम है । " (पृ. १०९ - ११० ) काव्य में रसों के दर्शन के प्रसंग में वीर रस, हास्य रस, रौद्र रस, बीभत्स रस, करुण रस, शृंगार रस आदि नव रसों को सुन्दर रीति से परिभाषित किया गया है। इसी सर्ग में महाकवि ने ९ की संख्या का महत्त्व, ३ व ६ की संख्या का एक-दूसरे से विषमता का भी अच्छा चित्रण किया है । कुम्भ पर सिंह और श्वान के चित्रण के प्रसंग में महाकवि ने सिंह और श्वान की चर्चा कर उनके स्वभाव पर तीखा व्यंग्य किया है । सर्ग के अन्त में दार्शनिक तत्त्व उत्पाद, व्यय और धौव्य की व्याख्या भी सीधी-सादी भाषा में निम्न प्रकार हुई है: “व्यावहारिक भाषा में सूत्र का भावानुवाद प्रस्तुत है : आना, जाना, लगा हुआ है / आना यानी जनन- उत्पाद है जाना यानी मरण - व्यय है / लगा हुआ यानी स्थिर- ध्रौव्य है और/ है यानी चिर- सत् / यही सत्य है यही तथ्य।” (पृ. १८५) तीसरे सर्ग का नाम है 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन ।' लेकिन सन्त कवि ने इस सर्ग का सार निम्न शब्दों में दिया है : " तुमने अग्नि-परीक्षा दी / उत्साह साहस के साथ / जो/ उपसर्ग सहन किया, सो/ सृजन-शील जीवन का / तृतीय सर्ग हुआ । " (पृ. ४८२-४८३) इस सर्ग में कुम्भ निर्माण की कथा किंचित् भी आगे नहीं बढ़ पाई है। किन्तु पूरे सर्ग में धरा के उद्भव और विकास, सूर्य, चन्द्रमा एवं सागर की भूमिका तथा पुण्य कर्म से उत्पन्न फल प्राप्ति का सुन्दर चित्रण हुआ है । इसी प्रसंग में महाकवि द्वारा नारी, महिला, अबला, कुमारी, स्त्री, सुता एवं दुहिता आदि शब्दों की आकर्षक व्याख्या प्रस्तुत की है। कुम्भकार की अनुपस्थिति में उसके आँगन में मुक्ताओं की वर्षा होती है । वर्षा के समाचार राजा तक पहुँच जाते हैं । उसके सेवक उन्हें बोरियों में भरने को जैसे ही हाथ बढ़ाते हैं वैसे ही आकाश से अनर्थ - अनर्थ, पाप- पाप की ध्वनि होती है और परिश्रम करने को कहा जाता है : " परिश्रम के बिना तुम / नवनीत का गोला निगलो भले ही, कभी पचेगा नहीं वह/ प्रत्युत, जीवन को खतरा है ।" (पृ. २१२ ) सभी 'मुक्ता उठानेवालों की स्वयमेव बुरी दशा हो गई । यहाँ तक कि राजा को अनुभूत हुआ कि उसे किसी मन्त्रशक्ति ने कील दिया है । इतने में वहाँ कुम्भकार भी आ गया। उसके मुख पर विस्मय, विषाद और विरक्ति की रेखाएँ खिंच गईं। वह भगवान् से प्रार्थना करने लगा : "जीवन का मुण्डन न हो / सुख-शान्ति का मण्डन हो / इन की मूर्च्छा दूर हो बाहरी भी, भीतरी भी / इन में ऊर्जा का पूर हो।” (पृ. २१४) इसके साथ ही वह मूर्च्छित मन्त्रिमण्डल के मुख पर मन्त्रित जल का सिंचन करता है । जल के प्रभाव से मूर्च्छा
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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