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मूकमाटी-मीमांसा :: 337
हैं- एक स्वयं, दूसरे औरों (दूसरों) के द्वारा पतित किए जाने पर । परिणामस्वरूप स्व-पद से दलित होना पड़ता है। स्व-पद से दलित होने की स्थिति में सुखों का अभाव तथा दुःखों से जुड़ाव हो जाता है तथा सामाजिक तिरस्कार का पात्र भी बनना पड़ता है। जो इन तथ्यों से अवगत हो जाता है वह अविलम्ब उन कारणों से मुक्ति की चाह एवं प्रयत्न करता है। 'मूकमाटी' में मिट्टी धरती माँ से यही कहती है :
"और सुनो,/विलम्ब मत करो/पद दो, पथ दो/पाथेय भी दो माँ !" (पृ. ५) जब स्वयं के दलित होने का भान हो जाता है, गुरुत्व की पहचान हो जाती है तभी पावनता/उत्थान का मार्ग प्रशस्त होता है । ठीक वैसे ही जैसे कि असत्य की पहचान होते ही सत्य की खोज प्रारम्भ हो जाती है । आचार्यश्री की दृष्टि में :
"और/तूने जो/अपने आपको/पतित जाना है/लघु-तम माना है यह अपूर्व घटना/इसलिए है कि/तूने/निश्चित रूप से/प्रभु को, गुरु-तम को/पहचाना है !/तेरी दूर-दृष्टि में/पावन-पूत का बिम्ब बिम्बित हुआ अवश्य !/असत्य की सही पहचान ही/सत्य का अवधान है, बेटा!
पतन पाताल का अनुभव ही/उत्थान-ऊँचाई की/आरती उतारना है !"(पृ.९-१०) मिट्टी का यह कथन भी अवलोकन योग्य है :
"लघुता का त्यजन ही/गुरुता का यजन ही/शुभ का सृजन है।" (पृ. ५१) यही परम सत्य प्रतीत होता है, क्योंकि जिसे लघुता का बोध हो जाता है, वही गुरुता की ओर बढ़ता है।
कुछ लोगों की ऐसी मान्यता है कि जो दलित हैं उनका उद्धार सम्भव नहीं है । जो उच्च हैं, वे उच्च ही रहेंगे और जो निम्न हैं, वे निम्न ही रहेंगे। किन्तु आचार्यश्री इसका खण्डन करते हैं। उनका मानना है कि सभी जीवों में परिवर्तन सम्भव है । जो निम्न (नीच) हैं उन्हें उठाया भी जा सकता है। नीच व्यक्ति को ऊपर उठाना सभ्यता की निशानी है तथा प्राणी मात्र का धर्म है। किन्तु दलितोत्थान की यह प्रक्रिया शारीरिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक सहयोग मात्र से पूरी नहीं होगी। इस कार्य के लिए तो दलितों को सात्त्विक संस्कारों में ढलना होगा। तभी वे उच्च पद, उच्च सत्ता का स्पर्श कर सकेंगे। 'मूकमाटी' में यह धारणा इस रूप में व्यक्त हुई है :
“अपनाना-/अपनत्व प्रदान करना/और/अपने से भी प्रथम समझना पर को यह सभ्यता है,प्राणी-मात्र का धर्म;/परन्तु यह कार्य/यथाक्रम यथाविधि हो इस आशय को और खोलूँ-/उच्च उच्च ही रहता/नीच नीच ही रहता ऐसी मेरी धारणा नहीं है,/नीच को ऊपर उठाया जा सकता है, उचितानुचित सम्पर्क से/सब में परिवर्तन सम्भव है।/परन्तु ! यह ध्यान रहेशारीरिक, आर्थिक, शैक्षणिक आदि/सहयोग-मात्र से/नीच बन नहीं सकता उच्च
इस कार्य का सम्पन्न होना/सात्विक संस्कार पर आधारित है।" (पृ. ३५७) अपने दुर्गुणों/दोषों को जलाने वाला उच्च अवस्था को प्राप्त कर लेता है । 'मूकमाटी' में 'कुम्भ' का यह कथन सही कदम एवं सही धर्म का पोषण करता है :
"...मेरे दोषों को जलाओ !/मेरे दोषों को जलाना ही/मुझे जिलाना है