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________________ 338 :: मूकमाटी-मीमांसा स्व-पर दोषों को जलाना/परम-धर्म माना है सन्तों ने।" (पृ. २७७) निरन्तर परिश्रम करने, पर-स्त्री को माता तुल्य समझने तथा दूसरे के धन को मिट्टी-समान समझने वाला ही उच्च जीवन को प्राप्त करता है । 'मूकमाटी' में 'आकाशवाणी' के माध्यम से यह प्रेरक विचार प्रत्यक्ष होता है : "परिश्रम करो/पसीना बहाओ/बाहुबल मिला है तुम्हें करो पुरुषार्थ सही/पुरुष की पहचान करो सही/परिश्रम के बिना तुम नवनीत का गोला निगलो भले ही,/कभी पचेगा नहीं वह प्रत्युत, जीवन को खतरा है!/पर-कामिनी, वह जननी हो, पर-धन कंचन की गिट्टी भी/मिट्टी हो सज्जन की दृष्टि में !"(पृ.२११-२१२) पराधीनता और दूसरों की बुद्धि पर आधारित क्रियाएँ भी दलित बनाने में कारण बनती हैं। स्वाधीनता से पदोन्नति सुनिश्चित होती है । आचार्यश्री की प्रेरणा है : “अपराधी नहीं बनो/अपरा 'धी' बनो,/'पराधी' नहीं पराधीन नहीं/परन्तु/अपराधीन बनो!" (पृ. ४७७) आचार्यश्री आश्वस्त हैं कि दलितों की स्थिति में बदलाव आएगा । अज्ञान, वैषम्य, प्रमाद, अशान्ति, सांसारिक दुःखमयता एवं अनास्था की काली रात अवसान की ओर है तथा स्व-जीवनोत्थान की उषा का उदय हो रहा है। 'मूकमाटी' के प्रारम्भ में आचार्यश्री ने लिखा है : "निशा का अवसान हो रहा है/उषा की अब शान हो रही है ।" (पृ. १) ___ वास्तव में जिसमें सह-अस्तित्त्व की भावना है, स्व-जीवनोत्थान की ललक है, जो "आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्" की भावना के प्रति आस्था रखता है तथा प्राणीमात्र की सुरक्षा के प्रति सजग है, ऐसा अहिंसक प्राणी न तो स्वयं दलित होता है और न दूसरों को पद-दलित करता है। आचार्य श्री विद्यासागरजी एक प्रबुद्ध श्रमण साधक सन्त हैं जिनके मन-हृदय में करुणा का सागर हिलोरें लेता रहा है । वे निरीह प्राणी भी उनके पद से आक्रान्त न हो पाएँ, इसलिए ईर्यापथ शुद्धिपूर्वक गमन करते हैं। उनकी क्रियायें, आचरण, व्यवहार एवं विचार स्वावलम्बन के जीवन्त प्रमाण हैं। वे स्वयं स्वाधीनता के मार्ग पर चल रहे हैं तथा अपने उपदेशों से प्राणी मात्र को स्वाधीन बनाने का उपक्रम अनायास करते हैं। ऐसे महान् श्रमण के विचार 'मूकमाटी' में दलितोत्थान के स्वर' रूप में सहज ही प्रकट/प्रस्फुटित हुए हैं । वे दलितों के प्रति मानवीय दृष्टि रखते हैं। उनके बताए संस्कारित/कंटक रहित मार्ग का अवलम्बन लेने पर दलितों का उत्थान अवश्यंभावी है। उनकी सद्भावना 'मूकमाटी' में कुम्भ के मुख से जिस रूप में निस्सृत हुई है, उससे यह बात सिद्ध होती है कि वे सम्पूर्ण प्राणियों/चराचर जगत् के सच्चे हितसाधक हैं। nu पृ. ३. पयरचलता है.... VERTEE - - - ... मनसे भी।
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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