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336 :: मूकमाटी-मीमांसा
परिश्रम के बिना हम कुछ प्राप्त नहीं कर सकते ।
जो एक-एक कदम उठाता हुआ आगे रखता चलता है विकास की ओर, वही सफल होता है । लक्ष्यवान् साधक सभी बाधाओं को पार करता हुआ आगे बढ़ता है।
जो व्यक्ति स्व-पर को दुःख देता है, वह नरक गति का पात्र बनता है। आचार्यश्री कहते हैं :
“स्व-पर को सताना है,/ नीच- नरकों में जा जीवन बिताना है।” (पृ. १८९)
या को धर्म कहा जाता है। आचार्यश्री की दृष्टि में जो व्यक्ति दयावान् होकर दयारहितों-दलितों पर दया करता है, भयशीलों को भयमुक्त करता है, सदा सदाशयी दृष्टि रखता है, वही समष्टि के हित-साधन में सहायक बन सकता है। ‘मूकमाटी में आचार्यश्री ने पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल जिया-उल-हक को प्रकारान्तर से यही सन्देश दिया है :
" सदय बनो ! / अदय पर दया करो / अभय बनो ! समय पर किया करो अभय की / अमृत-मय वृष्टि
सदा सदा सदाशय दृष्टि / रे जिया, समष्टि जिया करो ।” (पृ. १४९ )
आचार्यश्री की दृष्टि में द्रव्य की सार्थकता दीन-दुखियों के प्रति द्रवीभूत होने में ही है। जो द्रव्य दया के निमित्त नहीं है, उसे दरिद्रता का प्रतीक ही मानना चाहिए। 'मूकमाटी' में आचार्यश्री कहते हैं :
मत्कुण
" हे स्वर्ण - कलश ! / दुखी - दरिद्र जीवन को देखकर / जो द्रवीभूत होता है वही द्रव्य अनमोल माना है । / दया से दरिद्र द्रव्य किस काम का ?" (पृ. ३६५)
सेठ से भी यही कहता है :
"जीवन उदारता का उदाहरण बने ! / अकारण ही - पर के दुःख का सदा हरण हो !" (पृ. ३८८)
दुःखों से मुक्ति चिन्ता से नहीं बल्कि चिन्तन से मिलती है । आचार्यश्री सम्यक् विचार देकर दलितों / पतितों के लिए चिन्तन का मार्ग प्रशस्त करना चाहते हैं । सुप्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री पाओलो फ्रेरे का मत है : "उत्पीड़ित लोग स्वयं पर भरोसा करना तभी शुरू करते हैं, जब वे उत्पीड़क को खोज लेते हैं और अपनी मुक्ति के लिए संगठित संघर्ष करने लगते हैं। यह खोज नितान्त बौद्धिक खोज नहीं हो सकती। इसके लिए कर्म भी आवश्यक है । लेकिन यह खोज निरे कर्मवाद तक भी सीमित नहीं होगी । इसमें चिन्तन भी अवश्य शामिल रहना चाहिए। तभी यह खोज 'आचरण' कहलाएगी ।"
दलित भाव से मुक्ति अपनी वास्तविक (वर्तमान) स्थिति के बोध से ही होती है । दुःख के कारण जान लेने पर उन कारणों को हटाना सम्भव होता है। 'मूकमाटी' में दलित 'मिट्टी' अपनी माँ धरती से अपनी स्थिति का बखान इस रूप में करती है :
“स्वयं पतिता हूँ / और पातिता हूँ औरों से, /... अधम पापियों से पद- दलिता हूँ माँ ! / सुख-मुक्ता हूँ // दु:ख - युक्ता हूँ तिरस्कृत त्यक्ता हूँ माँ ।” (पृ. ४)
इस प्रकार यहाँ दलित प्राणी की सही पहचान आचार्यश्री ने मिट्टी के रूप में कराई है। दलित दो कारणों से होते