SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 412
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 326 :: मूकमाटी-मीमांसा को हाँक रहा है। फिर भी हम हैं कि जाग नहीं रहे हैं। यहाँ तक कि गणतन्त्र के स्वरूप को लेकर भी प्रश्न उभरने लगे "कभी-कभी हम बनाई जाती/कड़ी से और कड़ी छड़ी अपराधियों की पिटाई के लिए।/प्राय: अपराधी-जन बच जाते निरपराध ही पिट जाते/और उन्हें/पीटते-पीटते टूटती हम। इसे हम गणतन्त्र कैसे कहें?/यह तो शुद्ध 'धनतन्त्र' है या/मनमाना 'तन्त्र' है !" (पृ. २७१) जहाँ अपराधी की जगह निरपराधी सजा पाने लगें, रक्षक ही भक्षक बन जाएँ, राजा अपने धर्म से विमुख हो जाएँ, मन्त्री चाटुकार और पदलिप्सु हो जाएँ, सेवक अवज्ञाकारी हों, वहाँ समाजवाद तो क्या सामाजिक स्वरूप की कल्पना ही बेकार हो जाती है। किसी भी तन्त्र की सफलता उसके प्रति जन-आस्था से प्रमाणित होती है किन्तु यदि उसी 'जन' का विश्वास न्याय पर नहीं रहे तो 'तन्त्र' की सफलता खतरे में ही मानना चाहिए। आज के दौर में न्याय की प्राप्ति चाँद-तारे तोड़ने जैसा प्रतीत होने लगा है, क्योंकि न्याय लम्बित ही नहीं बल्कि विलम्बित भी हो गया है । परिणामस्वरूप न्याय और अन्याय के बीच की विभाजक रेखा समाप्त-सी हो गई है । 'मूकमाटी' में इसी भाव की अभिव्यक्ति प्रसंगवश हुई है : " 'आशातीत विलम्ब के कारण/अन्याय न्याय-सा नहीं न्याय अन्याय-सा लगता ही है।'/और यही हुआ इस युग में इसके साथ।" (पृ. २७२) समाजवाद का एक लक्ष्य है सामाजिक असमानता को समाप्त कर विभेदक रेखाओं को समाप्त करना। तथाकथित पद-दलितों के उत्थान हेतु अनेकानेक सहयोगी योजनाएँ चल रही हैं, किन्तु अपेक्षित परिणाम सामने नहीं आ रहा है। कारण स्पष्ट है कि शरीर, अर्थ और शिक्षा की उन्नति से ही कोई व्यक्ति उन्नत नहीं बन सकता, जब तक कि उसके संस्कार सात्त्विक नहीं हों। समाजवाद की प्रबल विरोधी विचारधारा 'पूँजीवाद' है । जब पूँजी कुछ-एक लोगों तक सीमित हो जाती है तो अनेक लोगों को रोटी-कपड़ा-मकान जैसी मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित रहना पड़ता है । एक बार गाँधीजी से एक मारवाड़ी सेठ ने पूछा : "आप सबसे टोपी लगाने के लिए कहते हैं, यहाँ तक कि टोपी के साथ आपका नाम जुड़ गया है और लोक उसे 'गाँधी टोपी' कहने लगे हैं, फिर आप स्वयं टोपी न लगाकर नंगे सिर क्यों रहते हैं ?" गाँधीजी ने मारवाड़ी सेठ के प्रश्न को सुनकर उनसे उत्तर के स्थान पर प्रश्न किया : "आपने जो यह पगड़ी पहन रखी है इससे कितनी टोपी बन सकती हैं ?" मारवाड़ी सेठ ने उत्तर दिया : बीस'। गाँधीजी ने कहा : "जब आप जैसा एक व्यक्ति बीस लोगों की टोपी अपने सिर पर रख लेता है तो उन्नीस लोगों को नंगे सिर रहना पड़ता है । उन्हीं उन्नीस लोगों में से मैं एक हूँ।" गाँधीजी का उत्तर सुनकर मारवाड़ी सेठ निरुत्तर हो गया। बस पूँजीवाद में यही बुराई है । वह दूसरों के अधिकार को हस्तगत कर लेता है । जैन धर्म में इसीलिए 'अपरिग्रह' की अवधारणा को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है ताकि पूँजीपति अपनी सम्पदा का स्वयमेव त्याग कर सकें। यहाँ गृहस्थ के लिए दान करना नित्यकर्म माना गया है। पूँजीवाद
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy