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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 327 को अशान्ति का अन्तहीन सिलसिला बताते हुए आचार्य श्री विद्यासागरजी कहते हैं : "हे स्वर्ण-कलश !.../परतन्त्र जीवन की आधारशिला हो तुम, पूँजीवाद के अभेद्य/दुर्गम किला हो तुम/और अशान्ति के अन्तहीन सिलसिला!" (पृ. ३६५-३६६) समाजवाद की प्रतिष्ठापना हेतु सामाजिक जनों को संघर्ष करना होगा। लेकिन यह ध्यान रहे कि यह संघर्ष 'संहार' में नहीं बदल जाए । पराजय का तात्पर्य मात्र हार मानकर बैठ जाना नहीं है बल्कि जीतने के लिए पुन: प्रयत्न करना है । निरन्तर जीवनोत्कर्ष से ही 'उच्च' लक्ष्यों की प्राप्ति सम्भव होगी । कवि के ये शब्द प्रेरणा के द्योतक हैं : __ "संहार की बात मत करो,/संघर्ष करते जाओ! हार की बात मत करो,/उत्कर्ष करते जाओ!" (पृ. ४३२) __जब व्यक्ति समष्टि में अपनी पहचान खोजता है तब समाजवाद का जन्म होता है और जब अपने में समष्टि की पहचान खोजता है तो व्यक्तिवाद होता है । व्यक्तिवाद का लक्ष्य वैयक्तिक भोग-साधनों की प्राप्ति करना है। उसका विश्वास स्वयं के उत्थान पर आधारित है । वह सोचता है : "स्वागत मेरा हो/मनमोहक विलासितायें/मुझे मिलें अच्छी वस्तुएँऐसी तामसता भरी धारणा है तुम्हारी, फिर भला बता दो हमें,/आस्था कहाँ है समाजवाद में तुम्हारी ? सबसे आगे मैं/समाज बाद में !" (पृ. ४६०-४६१) नितान्त वैयक्तिक धारणा तामसता है, जिसके रहते 'समाजवाद' के प्रति आस्था सम्भव ही नहीं है । समाजवाद सामाजिक विचारधारा से आएगा । जहाँ यह सोच होगा कि मैं सबसे आगे और बाद में समाज, वहाँ समाजवाद कैसे सम्भव होगा ? 'समाजवाद' में निहित धारणा को स्पष्ट करते हुए आचार्यश्री कहते हैं : "अरे कम-से-कम/शब्दार्थ की ओर तो देखो!/समाज का अर्थ होता है समूह और/समूह यानी/सम-समीचीन ऊह-विचार है/जो सदाचार की नींव है। कुल मिला कर अर्थ यह हुआ कि/प्रचार-प्रसार से दूर प्रशस्त आचार-विचार वालों का/जीवन ही समाजवाद है। समाजवाद समाजवाद चिल्लाने मात्र से/समाजवादी नहीं बनोगे।" (पृ. ४६१) जैसा कि समाजवाद शब्द से ही अर्थ ध्वनित होता है कि समाज यानी समूह, जिसके विचार सम्यक् हैं और जो सदाचार की नींव पर आधारित है। प्रचार-प्रसार से दूर, श्रेष्ठ आचार-विचार वालों का जीवन ही समाजवाद है। तात्पर्य यह है कि समाजवादी बनने के लिए अपने आचार-विचार को श्रेष्ठ बनाना होगा, मात्र समाजवाद-समाजवाद चिल्लाने से कोई समाजवादी नहीं बनेगा। आज देखने में यही आ रहा है कि जो अपने लिए समाजवादी कहते हैं, वे समाजवाद के निहितार्थ का स्पर्श भी नहीं करते । इस स्थिति पर समकालीन विचारधारा के कवि 'धूमिल' ('संसद से सड़क तक, पृ. १२६-१२७) का
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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