________________
316 :: मूकमाटी-मीमांसा
जाति विषयक चिन्तन भी इस काव्य में दृष्टिगोचर होता है । सहधर्मी और सजाति में वैर-वैमनस्य का भाव सदैव देखा जाता है :
"सहधर्मी सजाति में ही/वैर वैमनस्क भाव/परस्पर देखे जाते हैं ! श्वान, श्वान को देख कर ही/नाखूनों से धरती को खोदता हुआ
गुर्राता है बुरी तरह ।” (पृ. ७१) किन्तु यह भी सत्य है कि अपनी जाति, वर्ग के लोग ही अन्त में काम आते हैं :
"अन्त समय में/अपनी ही जाति काम आती है
शेष सब दर्शक रहते हैं/दार्शनिक बन कर !" (पृ. ७२) आज लोक व्यवहार में भी दोहरापन सर्वत्र दिखाई देता है :
" 'मुँह में राम/बगल में छुरी'/बगुलाई छलती है। दया का कथन निरा है/और/दया का वतन निरा है एक में जीवन है/एक में जीवन का अभिनय ।/अब तो." अस्त्रों, शस्त्रों, वस्त्रों/और कृपाणों पर भी/'दया-धर्म का मूल है' लिखा मिलता है ।/किन्तु,/कृपाण कृपालु नहीं हैं/वे स्वयं कहते हैं
हम हैं कृपाण/हम में कृपा न !” (पृ. ७२-७३) गुणों का सम्मान और दोषों के साथ द्वेष करना एक लोक व्यवहार है । कवि इससे सहमत नहीं है । इसी से उनका कथन है:
"गुणों के साथ/अत्यन्त आवश्यक है/दोषों का बोध होना भी,/किन्तु दोषों से द्वेष रखना/दोषों का विकसन है/और/गुणों का विनशन है; काँटों से द्वेष रख कर/फूल की गन्ध-मकरन्द से/वंचित रहना अज्ञता ही मानी है,/और/काँटों से अपना बचाव कर सुरभि-सौरभ का सेवन करना/विज्ञता की निशानी है/सो.
विरलों में ही मिलती है !" (पृ. ७४) युगीन परिवेश के विषय में भी कवि ने अपने विचार 'मूकमाटी' में व्यक्त किए हैं, जो द्रष्टव्य हैं :
0 "क्या इस समय मानवता/पूर्णत: मरी है ?/क्या यहाँ पर दानवता
आ उभरी है..?/लग रहा है कि/मानवता से दानवत्ता/कहीं चली गई है ?
और फिर/दानवता में दानवत्ता/पली ही कब थी वह ?" (पृ. ८१-८२) ० “ “वसुधैव कुटुम्बकम्"/इस व्यक्तित्व का दर्शन-/स्वाद - महसूस ___ इन आँखों को/सुलभ नहीं रहा अब !/यदि वह सुलभ भी है
तो भारत में नहीं,/महा-भारत में देखो !