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________________ 296 :: मूकमाटी-मीमांसा यथास्थितिवादी माना जाता है । 'मूकमाटी' से इस आरोप का खण्डन अपेक्षित था। २. साधुत्व की विक्रयकला : जैन इतिहास से यह स्पष्ट है कि आध्यात्मिकता का प्रभाव दस हजार व्यक्तियों में से प्रायः एक-दो-तीन पर ही विशेष पड़ता है। इसीलिए भगवान् ऋषभदेव से लेकर महावीर के युग तक और आज भी साधुओं की संख्या २-३/१०,००० के लगभग रही है। यह अध्यात्मवाद के ऐकान्तिक श्रद्धामूलक व्याख्यान का ही फल है। आज के वैश्वीकरण के युग में योग के समान अध्यात्म की विक्रय कला का भी विकास किया जाना चाहिए। यह स्पष्ट है कि अतीत कला के अध्यात्म गुरु इस कला में प्रवीण नहीं थे, अन्यथा विज्ञान/भौतिकवाद अध्यात्म पर इतना हावी नहीं हो पाता । 'मूकमाटी' भी अनेक कलाओं की तुलना में इस कला में कमज़ोर लगती है। ३. भूतकाल की ओर : इसी प्रकार, अहिंसक आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा एवं कर्नाटकी दलिया को ही श्रेष्ठ बता कर और स्टेनलेस स्टील या इस्पात को अन्य परम्परागत धातुओं की तुलना में सदोष कहकर क्या हमें दो हजार वर्ष पूर्व के सप्तधातुमय ग्रामीण युग में बने रहने का संकेत दिया जा रहा है ? क्या यह सम्भव है ? वैज्ञानिक विकास को इतनी निराशावादी दृष्टि से देखना आज के हेतुवादी जगत् को शायद ही मान्य हो । विज्ञान ने प्राकृतिक वस्तुओं के गुणों में परिवर्धन कर एवं अनुरूपी वस्तुएँ संश्लेषित कर प्रकृति में विद्यमान अपूर्णताओं को दूर कर हमें आशावादी बनाया है। विज्ञान ने हमें समस्याओं के समाधान हेतु साहसी बनाया है । फलत: मौलिक वस्तुओं के उपभोग से विमुखता और अनेक लौकिक वस्तुओं के उपभोग में प्रमुखता को धिक्कारना समुचित प्रतीत नहीं होता । इसी प्रकार, यह कहना भी तथ्य के प्रतिकूल होगा कि बुद्धिवादी विज्ञान के चरण (गतिशीलता) नहीं है और वह केवल विनाशक और पतनकारी है । विज्ञान और धार्मिकता के समन्वय के इस युग में एक महान् अन्तर्मुखी महाकवि से ऐसी उद्घोषणाएँ अपेक्षित नहीं हैं। फिर यह बात किससे छिपी है कि विज्ञान ने वेश-भूषा, संचार माध्यम, विश्वभाषा, संयुक्त राष्ट्रसंघ के समान संस्थाओं आदि के माध्यम से विश्वजनों के बाह्यत: एकीकरण में महान् योगदान किया है। इसके विपर्यास में, धर्म ने प्राणियों की आत्मिक एकता के उद्घोष के बावजूद भी व्यक्तिवाद को प्रोत्साहित कर मानव के समाजीकरण एवं एकीकरण में व्याघात-सा ही पहुँचाया लगता है । अनेक प्राचीन आचार्यों द्वारा नए सम्प्रदाय और संघों की स्थापनाएँ और उनके परस्पर विरोधों से हमें क्या संकेत मिलते हैं ? फलत: प्राचीनता एवं नवीनता के समन्वय एवं सदुपयोग की चर्चा काव्य को अधिक प्रभावक बना सकती थी। ४. धार्मिक आचार और लौकिक नैतिकता : धार्मिकता के दो पक्ष होते हैं- आचार और विचार । जैन धर्म ने आचार और त्रि-रत्न पर बड़ा बल दिया है। ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ आचार का सम्बन्ध भी व्यक्ति से है । समूह के आचार व्यक्ति से भिन्न भी देखे जाते हैं। सामाजिक आचारों को आज का जगत् नैतिकता' का नाम देता है। आधुनिक सन्दर्भ में जैन आचार मीमांसा' कृति में डॉ. दयानन्द भार्गव ने बताया है कि जैन परम्परा धार्मिक आचार और लौकिक नैतिकता को पृथक्-पृथक् मानती है । सामाजिक नैतिक नियम अपराधियों के लिए दण्ड का विधान करते हैं। उद्देश्य तो अपराधियों के आचार में सुधार ही है पर कभी-कभी यह विद्रोह को भी जन्म देता है। इसके विपर्यास में, धार्मिक आचार्य पाप से घृणा करने को कहता है, पापी से नहीं। फलत: 'मूकमाटी' महाहिंसक अपराधियों के प्राणदण्ड को भी अनुचित मानती है । अनेक अवसरों पर धार्मिकता, नैतिकता के सामने मौन रह जाती है । सामाजिक दृष्टि से यह धार्मिकता अपराधों को प्रेरित करने वाली ही कही जाएगी। भारत में आतंकवाद के प्रति नरम रुख का परिणाम सभी के समक्ष है । अत: व्यक्तिगत आचार और सामाजिक नैतिकता के विषय में किंचित् अधिक संवाद अपेक्षित था, जैसा दर्शन और अध्यात्म या दीपक और मशाल के विषय में दिया गया है । इसी प्रकार धन एवं लौकिक वस्तुओं के धिक्कार
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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