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घट का रूपान्तरण
स्वर्ण कलश, आतंकी दल, विद्या बल, बिजली, नदी आदि
स्फटिक झारी, कुम्भ, गज दल, नागनागिन, महामत्स्य, धरणी, नदी जल के जीव-जन्तु, जल देवता, साधु
इस प्रतीकवाद की परिवर्धित व्याख्या भी सम्भव है ।
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आकार धारण एवं सूखना सागर, बदली, बादल, राहु, ओलावृष्टि, भूक
सूर्य, तेजोतत्त्व, इन्द्र, पवन
अवा की अग्नि में घटपाक, कच्चे
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मूकमाटी-मीमांसा :: 295
विषय- कषायजन्य अशुभ आवेग रूपी उपसर्ग / इच्छाएँ
आवेगों के शमन में सहकारी कारण, पाप-प्रक्षालन में
सहायक
तपश्चर्या की अग्नि में संसारी जीव का कर्म-क्षरण प्रक्रम,
नव रूपान्तरण, सत् साधुत्व का उदय आत्मशक्ति के विकास में प्रतिस्पर्धी मनोवेग और कषाय तत्त्व आदि
आत्मोन्नति के मार्ग के मूल और सहकारी गुण, आवेग शामक तत्त्व, भक्ति एवं आस्था के तत्त्व
'मूकमाटी' के किंचित् विचारणीय संकेत
समीक्षकों ने 'मूकमाटी' को उत्कृष्ट कोटि का काव्य कहा है। यह उच्चतर जीवन के लिए लक्ष्य एवं पथ का प्रदर्शन करता है । यह वर्तमान विकराल जगत् में संयत साधु जीवन धारण कर मानवीय उच्चता को प्रेरित करता है । इससे कर्म-बन्धन और अशुभ भावनाएँ दूर होती हैं और जीवन सर्वोदयी बनता है । यह विषम और बहुआयामी जगत् को व्यापक और अनन्त अनेकान्तवादी दृष्टि से समझने का दर्शन देता है। यह मार्ग प्रतिस्पर्धा के बदले सन्तोष को वरीयता देता है । इसमें आस्था, भक्ति, विश्वास, आगम श्रद्धा, परम्परा एवं स्वानुभूति का परम स्थान है । इस काव्य में यह सब ऐसे लोकप्रिय कथानक एवं मानवीकृत पात्रों के माध्यम से उपदेशित है जो रोचक भाषा, भाव, संवाद, परिकथा, उपमान, रूपक, निदर्शन एवं शैली आदि की दृष्टि से अपूर्व है और पाठक के लिए मनोहारी है। इन आधारों पर इस काव्य की तुलना महाकवि ईलियट के 'वेस्ट लैंड' एवं मिल्टन के 'पैराडाइज़ लॉस्ट' से की गई है। वस्तुत: यह काव्य अनुपम ही है। फिर भी, इस काव्य में कुछ बिन्दु ऐसे हैं जिनके विषय में चर्चा अपेक्षित है। इनमें निम्न प्रमुख हैं :
१. बुद्धिवाद की उपेक्षा : काव्यशास्त्रीय कोटि की उत्तमता के बावजूद भी इसके कुछ प्रत्यक्ष या परोक्ष संकेत आज के बौद्धिक जगत् को निश्चित रूप से चकित करते हैं । यह सही है कि आध्यात्मिकता मानवीय एकता का आधार है, पर धार्मिकता के क्रमशः क्षरण के युग में केवल आस्था एवं विश्वास या परम्परागत गुरु-उपदेश कहाँ तक इस दिशा में प्रेरक बन सकते हैं ? सुबुद्धिपूर्वक आस्था ही बलवती एवं पथ प्रेरक बनती है। दुर्बुद्धि तो आततायिनी और आर्तदायिनी होती है । इस दृष्टि से अनेक कथोपकथनों में तर्क-वितर्क पद्धति अपनाने के बावजूद, आस्था में बुद्धि के उपयोग को कहीं प्रोत्साहन नहीं दिया गया है । समन्तभद्र और सिद्धसेन के युग से प्रारम्भ हेतुवादी प्रकर्ष के स्वर्ण काल की ऐतिहासिकता के बावजूद इसे उपेक्षित रखना अचरजकारी ही है । क्या आस्था, श्रद्धा, परम्परा एवं स्वानुभूति का हेतुवाद से विरोध है? आध्यात्मिक क्षेत्र में बुद्धिवाद के बहिष्कार से ही भौतिकवाद की प्रगति एवं धार्मिकता का क्षरण हुआ है । वस्तुतः समन्वयी प्रतिस्पर्धा भावना के बिना जीवन में गतिशीलता नहीं आती । इसीलिए संन्यासी जीवन