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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 297 एवं समाजवाद के स्वरूप के निखार के संकेत के बावजूद भी अपरिग्रह के आचार पर कवि का मौन भी किंचित् अधिक विचार चाहता है। ५. वैज्ञानिक तथ्यों की उपेक्षा : परम्परापोषी आचार्य होने के कारण 'मूकमाटी' के लेखक ने अनेक ऐसी परम्परागत मान्यताओं का काव्य में उल्लेख किया है जो वर्तमान अनुसन्धानिक निष्कर्षों से मेल खाती प्रतीत नहीं होती। इनमें निम्न मान्यताएँ मुख्य हैं : १. सूर्य पृथ्वी से अधिक समीप है । (१५४३ लाख कि.मी.)। २. चन्द्र पृथ्वी से सूर्य की अपेक्षा दूर है (५.३ लाख कि. मी.)। ३. सूर्य ग्रहण का कारण राहु ग्रह द्वारा उसका ग्रसन है (सूर्य ग्रहण तब होता है जब सूर्य और पृथ्वी के बीच चन्द्रमा आ जाता है)। ४. चक्षु अप्राप्यकारी हैं (वस्तुत: यह परोक्षत: या ईषत् प्राप्यकारी है)। ५. हमें मोहनीय एवं असाता कर्म के उदय से भूख लगती है (मस्तिष्क में पार्श्विक हाइपो-थैलेमस में भोजन केन्द्र होते हैं । पेट के सिकुड़न की सूचना पहुँचने पर ये केन्द्र सक्रिय होकर भूख का आभास कराते हैं। विज्ञान की दृष्टि से यह जीवित शरीर तन्त्र की सहज क्रिया है)। इन मान्यताओं के दृश्य कारणों में सूर्य के बृहदाकार एवं चन्द्र के आकार का दिखना है । इसी प्रकार, अन्य मान्यताओं के सम्बन्ध में भी परम्परागत धारणाएँ हैं। ये धारणाएँ वैज्ञानिकत: पुष्ट नहीं हैं। यह बात अलग है कि आकाशीय चन्द्र एवं सूर्य को जैनों का चन्द्र और सूर्य न मानें । भूख लगने के लिए भी कर्मवाद का आधार अमूर्तत: ही सार्थक होगा, मूर्तत: तो उसके कारण सुज्ञात हैं। वैसे कर्मवाद में कर्म की मूर्तता की समकक्षता तक अभी वैज्ञानिक नहीं पहुंचे हैं। इस तरह के वैज्ञानिक प्रकरणों में अनेक विद्वानों का मत है कि इन लौकिक तत्त्वों को धार्मिक मान्यताओं के अंग के रूप में नहीं लेना चाहिए क्योंकि विज्ञान प्रवाहशील है । इस तरह के संकेतों से धार्मिक आस्थाओं में स्खलन की सम्भावना रहती है। इन्हें या तो आधुनिक सन्दर्भ में देना चाहिए था या फिर उपेक्षित ही कर देना चाहिए था । पूर्व वर्णित अन्य अनेक वैज्ञानिक प्रक्रमों की कोटि भी प्राथमिक निरीक्षण के अन्तर्गत आती है। ये विज्ञान द्वारा सव्याख्या अनुमोदित हैं। कथानक के विकास एवं तत्त्वदर्शन के विवरण के लिए इससे अधिक की आवश्यकता भी नहीं थी। ६. माटी का शोधन एवं अन्तर्ग्रथन : 'मूकमाटी' के रूपक काव्य का मुख्य उद्देश्य पतित(मिट्टी, संसारी जीवात्मा) को पावन (घट-कलश, शाश्वत, सुखी शुद्ध आत्मा) बनाना है । लेकिन मिट्टी जब घट में रूपान्तरित होती है, तब उसकी कुछ अशुद्धियाँ (कंकड़) ही भौतिक माध्यमों से दूर होती हैं । मिट्टी कुछ रासायनिक सिलिकेट यौगिकों का मिश्रण है। इन्हें उत्तापित करने पर ये परस्पर अभिक्रिया कर कठोर यौगिक (सिलिको-ऐल्युमिनेट) बनाते हैं। फलत: माटी से घट बनने की क्रिया पूर्ण शोधन की क्रिया नहीं, पर अन्तर्ग्रथन की क्रिया है । इसे मिट्टी के अधिक उपयोगी रूप में स्थानान्तरण की क्रिया भी कह सकते हैं। क्या हम इसी प्रकार संसारी जीव का भी अन्तर्ग्रथन एवं सामाजीकरण के रूप में विकास चाहते हैं ? फलत: यह रूपक-प्रतीक कर्मबद्ध संसारी जीव के शुद्धात्मा में रूपान्तरण के लिए समुचित नहीं लगता। पर इस विसंगति को इस परम्परा के अनुसार ही मान्यता दी जा सकती है कि दार्टान्त के सभी धर्म दृष्टान्त में नहीं पाए जाते । यहाँ केवल उपयोगी रूपान्तरण एवं उसके लिए प्रयुक्त प्रक्रिया ही समरूप होती है : (१) मिट्री-कच्चा घट-नव रूपान्तरित घट-शुभ उपयोगी घट (२) कर्मबद्ध जीव-भक्ति/आस्था-बाह्य तप-अन्तरंग तप-रूपान्तरित जीवात्मा
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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