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292 :: मूकमाटी-मीमांसा (११) 'मूकमाटी' काव्य की उदात्तता सम्प्रदायातीत एवं मानवतावादी है । यह एकान्तवादी नहीं, अनन्त
आनन्दवादी है। मानव जीवन की उदात्तता के लिए सभी धर्मों ने बाह्य एवं अन्तरंग संस्कारों, परिशोधन, गुरु
शब्दों में आस्था और आचरण को महत्त्वपूर्ण बताया है। (१२) धार्मिकता के क्षरणशील युग में भक्ति, आस्था एवं आगमश्रद्धा के प्रति आकर्षण उत्पन्न करने की कला
(सागर के प्रकोप के समय प्रभु स्मरण, चेतना शक्ति जागरण आदि) को प्रभावी ढंग से निदर्शित किया है। 'मूकमाटी' : एक दार्शनिक महाकाव्य
'मूकमाटी' के कवि ने अपने महाकाव्य में जैनों की अनेक लौकिक एवं आध्यात्मिक जगत् से सम्बन्धित दार्शनिक मान्यताओं को रसमय रूप में व्याख्यायित किया है। उन्होंने वर्तमान में वर्षों से चर्चा में चल रहे निमित्तउपादान की ऐकान्तिक मान्यताओं के विपर्यास में उनकी सापेक्षत: समान महत्ता प्रतिपादित की है। एक ही कारण को कार्य का जनक मानना दोषपूर्ण माना है। किसी एक कारण को अधिक महत्त्व देना दूसरे कारण की शक्ति को अस्वीकार करना है। इसी प्रकार पुद्गल में रूप-रसादि के सह-अस्तित्व को भी कवि ने सोदाहरण सिद्ध किया है। अनेकान्तवाद की दार्शनिक और व्यावहारिक पृष्ठभूमि तो अनेक बार प्रस्फुरित हुई है । कवि ने स्थान-स्थान पर आध्यात्मिक लक्ष्य को इंगित करते हुए, अनेक व्यंग्यों के माध्यम से भी दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र की अविनाभावी त्रिवेणी में स्नान करने की तर्कसंगत चर्चाएँ की हैं और मात्र अर्थवृत्ति को उपेक्षणीय बताया है। अध्यात्म मार्ग में मन का अनुशासन अनिवार्य है। यही ध्यान और कर्म दहन में सहायक होता है । यह लौकिक जीवन की सुखमयता तो बढ़ाता ही है, आध्यात्मिक जीवन के उच्चतम शिखर को प्राप्त कराता है। 'मूकमाटी' में वैज्ञानिक तथ्य
'मूकमाटी' का कवि अपने स्वानुभूतिक अन्तर्निरीक्षणों के साथ प्राकृतिक घटनाओं और प्रक्रियाओं का भी तीक्ष्ण निरीक्षक है । उसके अनेक प्रकरणों से हमें अनेक भौतिक एवं रासायनिक प्रक्रियाओं तथा कृषि, चिकित्सा, ज्योतिष एवं मन्त्र-तन्त्र विज्ञान के सम्बन्ध में जानकारी मिलती है । इससे कवि की परम्परागत बहुश्रुतता का आभास होता है । सर्वप्रथम तो मिट्टी के घड़े और मंगल कलश के निर्माण की प्रक्रिया के प्राय: नौ चरण हमें सुज्ञात होते हैं :
मिट्टी खोदना, छानना, पानी मिलाना, रौंदना एवं लोदे बनाना, कुलाल चक्र पर कच्चा घड़ा बनाना, सुखाना और ठोकना-पीटना, अवा में पकाना, घट पर विभिन्न प्रतीक लेखन द्वारा मंगल कलश का रूप देना, गुरु के प्रतिगाहन (पड़गाहन) एवं पाद-प्रक्षालन में उपयोग । इनमें छानने पर विजातीय द्रव्य-कंकड़ आदि पृथक् होते हैं, पानी मिलाने पर मिट्टी में नम्रता आती है । रौंदने पर समरूपता, चिक्कणता एवं विशिष्ट आकार धारण करने की क्षमता आती है। चक्र पर घुमाने पर कुम्भकार आकार देता है । सूखने पर उसमें स्थिरता और ठोकने-पीटने पर एक समान संरचनात्मकता आती है। ये सभी भौतिक प्रक्रियाएँ हैं। कच्चे घड़े को अवा में पकाने पर अनेक प्रकार की रासायनिक प्रक्रियाएँ होती हैं जिनमें ऐसे यौगिक बनते हैं जो उपयुक्त रंग (काला या लाल), कठोरता (शक्ति) और सीमित सछिद्रता प्रदान करते हैं। इससे घट में जल (और अन्य द्रव्य भी) की धारण क्षमता आती है। कवि को 'अवा' को तैयार करने की सम्पूर्ण विधि
और विवरण प्रत्यक्ष दृष्ट-से लगते हैं। कवि ऐसा मानता है कि इस अग्नि पक्व होने से मिट्टी के घड़े के अनेक दोष उसकी सतह पर आ जाते हैं (इसी से उसका रंग निर्धारित होता है) और वह अन्तरंग से पावन हो जाता है। अग्निपक्व घट की मंगलमयता और उपयोगिता सेठ के समान भक्तों के प्रतीक लेखन, कण्ठ पर श्रीफल रखने एवं गुरु-पद-प्रक्षालन आदि कार्यों से और उसके अन्तरंग भावों से आती है।