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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 279 कर्तव्यारूढ़ उद्यमी कुम्भकार सर्वप्रथम ओंकार को नमन करता है और क्रूर कुदाली से माटी को खोदता है । क्रूर कुदाली के प्रहार-पर-प्रहार होने पर भी माटी उसकी निर्ममता और अदया से विचलित नहीं होती और उसे निरन्तर सहती जाती है। वह जो आज ही सहन नहीं कर रही, युग-युगों से सहन करती आयी है : "माटी का इतिहास/माटी के मुख से सुन शिल्पी सहज कह उठा/कि/वास्तविक जीवन यही है।" (पृ. ३३) कुम्भकार माटी को बोरे में भरकर, गधे की पीठ पर रखकर अपने घर लाता है और उसे तार वाली चालनी से छानता है । स्वयं शिल्पी चालनी का चालक बनता है । माटी जो अभी तक वर्ण-संकर थी, जिसमें उसकी प्रकृति के विपरीत बेमेल तत्त्व कंकर आदि आ मिले थे, उन्हें छानकर हटा दिया जाता है । और तब वह अपना मौलिक वर्ण-लाभ प्राप्त करती है। बोझा ढोने वाला गदहा भगवान् से प्रार्थना करता है : "मेरा नाम सार्थक हो प्रभो!/यानी/'गद' का अर्थ है रोग 'हा' का अर्थ है हारक/मैं सबके रोगों का हन्ता बनूं/"बस, और कुछ वांछा नहीं/गद-हा“गदहा!" (पृ. ४०) सन्त कवि कहते हैं कि यह गदहा तो युग-युग का राही है । तब ही तो वह राही से हीरा बना एवं हमें तन और मन को तप की आग में तपा-तपाकर, जला-जलाकर, राख करना होगा, तभी यह चेतन आत्मा खरा उतरेगी : "राख बने बिना/खरा-दर्शन कहाँ ?/रा"ख"ख"रा"" (पृ. ५७) सन्त कवि की शब्द साधना से अनेक आन्तरिक अर्थ जीवन दर्शन को अनेक प्रकार से परिभाषित करते हैं। “वसुधैव कुटुम्बकम्” का अर्थ ही बदल गया है और उसका आधुनिकीकरण होकर अर्थ धन या द्रव्य से जुड़ गया है : “ 'वसु' यानी धन-द्रव्य/'धा' यानी धारण करना/आज ___ धन ही कुटुम्ब बन गया है/धन ही मुकुट बन गया है जीवन का।" (पृ. ८२) - “वसुधैव कुटुम्बकम्” की भावना अब सहज, सुलभ नहीं है। इसका दर्शन "...भारत में नहीं,/महा-भारत में देखो ! भारत में दर्शन स्वारथ का होता है ।" (पृ. ८२) यही कलियुग की सही पहचान है, क्योंकि : "सत् को असत् माननेवाली दृष्टि/स्वयं कलियुग है, बेटा !" (पृ. ८३) सन्त कवि आशावादी है । वह निराशा के इस कुहासे में आशा की एक किरण की ताक में है, तभी तो : "टूटा-फूटा/फटा हुआ यह जीवन जुड़ जाय बस, किसी तरह/शाश्वत-सत् से।” (पृ. ८५) महाकाव्य के दूसरे खण्ड का प्रारम्भ शिल्पी कुम्भकार द्वारा माटी को एक नया रूप देने से प्रारम्भ होता है :
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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