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________________ 278 :: मूकमाटी-मीमांसा इतना ही नहीं : " स्वयं पतिता हूँ / और पातिता हूँ औरों से, ··· अधम पापियों से/पद- दलिता हूँ माँ ! " (पृ. ४) "सुख-मुक्ता हूँ / दु:ख - युक्ता हूँ / तिरस्कृत त्यक्ता हूँ माँ ! " (पृ. ४) बेटी 'माटी' अपनी अव्यक्त पीड़ा और अन्तर्वेदना किसके सामने व्यक्त करे, क्योंकि वह घुटन छुपाती - छुपाती घूँट पीती-पीती जीती आ रही है और माँ धरती से बार-बार पूछती है : "... सुनो, / विलम्ब मत करो पद दो, पथ दो / पाथेय भी दो माँ ! " (पृ. ५) कुछ क्षण के मौन के बाद वे एक-दूसरे को ताकती हैं। माँ धरती और बेटी माटी का यह वार्तालाप काफी लम्बा चलता है और वे अपने बीते युगों की स्मृतियों को पुन: पुन: ताजा करती हैं। माटी की वेदना, व्यथा इतनी तीव्रता और मार्मिकता से व्यक्त हुई है कि करुणा साकार हो जाती है। माँ-बेटी का यह वार्तालाप क्षण-क्षण में सरिता की धारा के समान अचानक नया मोड़ लेता जाता है और दार्शनिक चिन्तन मुखर हो जाता है। प्रत्येक तथ्य तत्त्व दर्शन की उद्भावना में अपनी सार्थकता पाता है । प्रसंग और परिवेश के अनुरूप मानवीय जीवन दर्शन परिभाषित होता जाता है। सभी तो है कि 'आस्था के बिना रास्ता नहीं' (पृ. १०), क्योंकि : और कुम्भकार : "कभी-कभी / गति या प्रगति के अभाव में / आस्था के पद ठण्डे पड़ते हैं, धृति, साहस, उत्साह भी / आह भरते हैं ।" (पृ. १३) इसलिए आस्थावान् पुरुष को हरदम उद्यमी होकर अपने कर्त्तव्य पथ पर डटे रहना चाहिए। सन्त कवि जीवन प्रसंग के अनेक उद्धरण प्रस्तुत करते हुए उद्यमी पुरुष के रूप में कुम्भकार को अपने कर्त्तव्य पथ पर आरूढ़ दिखाकर माटी के पास लाकर खड़ा कर देता है । यहाँ कुम्भकार को अपने पास खड़ा देखकर माटी एक पल को पुलकित हो उठती है : "फूली नहीं समाती,/ भोली माटी यह घाटी की ओर ही / अपलक ताक रही है।" (पृ. २५) " वह एक कुशल शिल्पी है ! / उसका शिल्प / कण-कण के रूप में बिखरी माटी को / नाना रूप प्रदान करता है।" (पृ. २७) युग के आदि में उसका नाम कुम्भकार क्यों पड़ा, सन्त कवि के ही शब्दों में : "युग के आदि में / इसका नामकरण हुआ है / कुम्भकार ! 'कुं' यानी धरती / और / 'भ' यानी भाग्य - / यहाँ पर जो भाग्यवान् भाग्य-विधाता हो / कुम्भकार कहलाता है ।" (पृ. २८)
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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