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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 275 “ “धम्म सरणं पव्वज्जामि"/इस मन्त्र को भावित करती हुई आस्था उसकी/और आश्वस्त होती जा रही है।" (पृ. ७५) दु:ख मनुष्य का सत्य नहीं है । सुख भी उसका सदैव कहाँ साथ देता है । साधना की स्थिति में दुःख के कारण को जान लेना और उससे उबर जाना ही एक तरह का सत्य मार्ग है । सुख भी तो छलावा है । इसलिए इनसे ऊपर उठकर संसार को स्याद्वाद से समझना ही श्रेयस्कर है। कोशिश यह रहे कि मिट्टी, अपरिमित मिट्टी परिमित आकार पा जाए। सुघड़ स्वरूप पा जाए । यात्रा का चरम उसे प्राप्त हो सके । इसकी सुन्दर ध्वनि 'मूकमाटी' में सुनाई देती है । मिट्टी का सुघड़ घट बनना ही उपेक्षित वस्तु का सर्वोत्तम बन जाना है। जीव को उसका अपेक्षित मिल जाना है। 'मूकमाटी' काव्य साहित्य ही नहीं, जीवन की अमूल्य धरोहर साबित होगा। आचार्य श्री विद्यासागरजी के श्रीचरणों में शत-शत नमन सहित । VURUGU पृ. १ परसरोपग्रो जीवानाम्--- जीवनाचिरंजीवना। संजीवन 11 'चिरंजीवन
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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