SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 362
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'मूकमाटी' : आधुनिक भारतीय साहित्य परम्परा का अनूठा एवं उल्लेखनीय महाकाव्य प्रो. (डॉ.) लालचन्द अहिरवाल 'ज्योति' 'मूकमाटी' आधुनिक भारतीय साहित्य परम्परा में एक अनूठी एवं उल्लेखनीय काव्य सृजना है। इसकी सृजना भारतीय जीवन दर्शन को एक नए सिरे से सोचने, विचारने एवं मनन करने की प्रक्रिया को एक नयी चिन्तनधारा प्रदान है । 'मूकमाटी' ने आध्यात्मिक, दार्शनिक, धार्मिक धरातल पर ही नहीं वरन् जीवन-जगत् के सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, वैचारिक, मनोविश्लेषणात्मक, व्यावहारिक भाव वीथियों की मानवीय अन्तर्द्वन्द्व की ग्रन्थियों पर भी प्रकाश डाला है। इतना ही नहीं, इसकी सृजना ने युग की प्रासंगिकता एवं सम-सामयिकता पर सोचने को मजबूर किया है। जीवन की पूर्णता गृहस्थ या वैराग्य अथवा प्रवृत्ति या निवृत्ति रूप एक पक्ष विशेष की पूर्णता से सम्पूर्णता की पर्याय नहीं कही जा सकती है वरन् जीवन की पूर्णता दोनों के समन्वय, सामंजस्य में सन्निहित है । राग और विराग, प्रवृत्ति और निवृत्ति, गृहस्थ और संन्यास, जीवन और मरण तथा जड़ और चेतन के मध्य सम्यक् दृष्टि का होना ही भारतीय चिन्तनधारा की मूल प्रेरणा रही है। इसीलिए भारतीय जीवन दर्शन संसार के श्रेष्ठतम जीवन दर्शनों में से एक है। दिगम्बर जैन सन्त आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज की लेखनी ने विद्या के अथाह, अगाध सागर में गोता लगाकर भावरूपी मुक्ताओं को चुन-चुनकर मूकमाटी के कलेवर और उसकी आत्मा को सम्हाला है। सन्त आचार्य की लेखनी से प्रसूत 'मूकमाटी' हिन्दी महाकाव्य परम्परा की एक अमूल्य धरोहर है। यह एक ऐसी उत्कृष्ट अमर काव्यकृति है, जिससे माटी का कण-कण स्पन्दनयुक्त हो सजीव, प्राणवान् हो उठा है। यहाँ कहने मात्र को मूकमाटी है, पर मूक यानी जो बोले नहीं या न बोलने वाली, गूँगी । और माटी यानी हीरा, मोती, सोना, रूपा (चाँदी) उगलने वाली मिट्टी वह लोकहितकारी मंगल घट की सृजनकर्त्री है जो मात्र शोभा का पात्र बनकर नहीं रहती, वरन् वह पिपासात्रस्त, क्षुधात्रस्त, संसार या मानवता की, युग-युग की प्यास तृप्त करती आई है। सन्त आचार्य की लेखनी ने मूकमाटी में प्राण फूँककर, उसकी अमरता को भी अमरत्व प्रदान किया है जो मंगल घट के रूप में संसार के सामने है। सुरा से भरे स्वर्णकलश और अमृत से भरे मिट्टी के घड़े की पहचान मात्र ऊपरी आवरण या चमक-दमक से नहीं लगाई जाकर, उसमें भरी सुरा और अमृत के आस्वादन से ही जानी जा सकती है। माटी जैसी अकिंचन, पददलित, तुच्छ एवं युग-युग से उपेक्षित वस्तु को महाकाव्य का विषय बनाने कल्पना ही आचार्य विद्यासागरजी की अपनी मौलिक, अनोखी सूझबूझ की प्रतीक या उद्भावना है, जो मूकमाटी की तुच्छता में जड़त्व व चैतन्य का समन्वय, द्वैत व अद्वैत का एकत्व, भारतीय चिन्तनधारा की नवोन्मेषमयी विचारधारा के रूप में आत्मा के दिव्य दर्शन कराती है । माटी की तुच्छता एवं मूकता में चरम भव्यता के दर्शन कर, सन्त आचार्य ने उसकी विशुद्धता के उपक्रम को मंगल घट के रूप में उपस्थित किया है तथा माटी की मूक वेदना एवं वाणी की आकांक्षा को वाणी प्रदान की है। जड़त्व से चेतनता, मरण से अमरता और पतन से विकास तथा ह्रास से सृजन की सफल यात्रा का दिग्दर्शन कराया है। सन्त आचार्य ने संसार की निम्न से निम्न, तुच्छ से तुच्छ एवं उपेक्षित से भी उपेक्षित वस्तु की महत्ता को समझा है, और प्रतिपादित किया है इस कहावतानुसार : " रहिमन देख बड़न को, लघु न दीजै डारि । जहाँ काम आवै सुई, कहाँ करे तलवारि ॥ "" अर्थात् हमें बड़े को देखकर छोटों को नहीं त्यागना चाहिए या बड़ों की तुलना में छोटों की उपेक्षा नहीं करना चाहिए ।
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy