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________________ 'मूकमाटी': भारतीय साहित्य की अनुपम कृति डॉ. श्रीराम परिहार पूज्यपाद श्री विद्यासागरजी द्वारा रचित 'मूकमाटी' भारतीय साहित्य की अनुपम कृति है । माटी जैसी सामान्य और सर्वथा उपेक्षित वस्तु को आपने काव्य का विषय बनाया और उसे महाकाव्यात्मक शैली में दर्शन की ऊँचाई दी, यह असाधारण प्रतिभा का कार्य है । यह एक मानवीय काव्य है जो मिट्टी की कहानी के माध्यम से शब्दबद्ध हुआ है। आचार्यश्री की दृष्टि मनुष्य के जीवन खण्ड के उस शिखर पर पहुँचती है, जहाँ मनुष्य के सुख के साथ विश्वकल्याण झिलमिलाता रहता है। मनुष्य के सुखों के सन्दर्भ में उनकी रचना-दृष्टि भौतिक सुखों तक सीमित नहीं रहती है, बल्कि अनेकान्त दर्शन के माध्यम से जीवन जगत् की तलाश करती है। "बन्धन-रूप तन,/मन और वचन का/आमूल मिट जाना ही/मोक्ष है। इसी की शुद्ध-दशा में/अविनश्वर सुख होता है/जिसे/प्राप्त होने के बाद, यहाँ/संसार में आना कैसे सम्भव है/तुम ही बताओ !" (पृ. ४८६-४८७) 'मूकमाटी' की कथा माटी के जरिए विश्व-दर्शन के अन्दर छुपे सत्य को पाने की है। कवि प्रकारान्तर से भविष्यद्रष्टा होता है और वह कवि यदि सन्त है तो वह त्रिकालज्ञ होता है । वह चीज़ों को देखते हुए भी नहीं देखता है और कुछ नहीं देखते हुए भी सब कुछ देखता है । यह सब कुछ देखना, सब कुछ जान लेने पर ही सम्भव है । भीतर से पूर्णतः स्पष्ट होने पर ही मुमकिन है। यह स्पष्टता दर्शन के रास्ते और आसान हो जाती है। जैन दर्शन विश्व और उसके उपकरणों को अपने तरीके से देखता है । वह सृष्टि और उसके अस्तित्व को स्वीकार करते हुए उसके मूल तक पहुँचता है। इसीलिए माटी जैसी साधारण वस्तु को भी आचार्यश्री की कलम उसके निर्माण को सर्वोत्तम निर्दिष्ट करती है : "कुम्भ के विमल-दर्पण में/सन्त का अवतार हुआ है/और कुम्भ के निखिल अर्पण में/सन्त का आभार हुआ है।" (पृ. ३५४-३५५) 'मूकमाटी' जीवन के सत्य को क्षणभंगुरता के स्तर पर संकेतित करके अपनी इति नहीं कर लेती, बल्कि जीवन के संघर्ष और उसकी सूझ को भी रेखांकित करती है । इन अर्थों में यह रचना संसार से पलायन का सन्देश नहीं देती, उसे समझने और उसे अधिकाधिक अच्छा बनाने की प्रेरणा देती है। इस कृति में कवि और सन्त की दृष्टि तथा उपदेश दोनों एक साथ काम करते हैं । कवि इसमें जीवन के व्यवहार को व्यवस्थापित करता हुआ उसकी दिशा तय करता है और आचार्यश्री का सन्त उस दिशा का गन्तव्य लक्ष्यित करता है । इस प्रक्रिया में वे जैनमत के सिद्धान्तों को बड़ी कुशलता से गूंथते चलते हैं और मनुष्य के व्यावहारिक धरातल पर रूपायित करते हैं। वे सिद्धान्तों को आचरण की ज़मीन पर उतारकर उनकी महत्ता को और-और पुष्ट करते हैं। . एक यात्रा है जीवन की, सृष्टि की। यह यात्रा जन्म और मोक्ष के दो छोरों के बीच धावित है। इसमें अनेक बिन्दु काम करते हैं। एक बिन्दु का ही वैसे तो सारा पसारा है, परन्तु उन बूंद के छोटे-छोटे कतरे मनुष्य में सर्जन के बीजांकुरों को पोषित और पल्लवित-पुष्पित करते रहते हैं। आस्था को इसी अर्थ में कवि ने व्यापक सन्दर्भ दिए हैं। दरअसल यह काव्य मनुष्य जीवन का नीतिशास्त्र है एवं आस्था, साधना, सत्य, ब्रह्मचर्य, अस्तेय, अपरिग्रह, अचौर्य की काव्यमय प्रस्तुति करते हुए कवि जीवन के रहस्यों को खोलता चलता है और साधना का मार्ग प्रशस्त करता है :
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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