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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 273 ३. 'मूकमाटी' को पढ़ने के उपरान्त विकारयुक्त हृदय भी निर्मल बन जाता है । ऐसी स्थिति में भौतिकता के कीचड़ में फँसी यह सृष्टि इस कृति के द्वारा अपना आत्म कल्याण कर सकती है। ४. 'मूकमाटी' के माध्यम से आचार्यश्री ने सत्यं, शिवं और सुन्दरम् की विराट् अभिव्यक्ति के मुक्ति द्वार खोलने में जिस कलात्मकता का परिचय दिया है, उससे सरल हृदयों में धर्म, दर्शन, कर्म, संस्कृति और अध्यात्म के पावन पंचामृत की स्वाभाविकता की सहज अनुभूति होने लगती है। ५. इस धरित्री के वे 'सन्त' महान् हैं जो अपनी रचनाधर्मिता के द्वारा इस सांसारिक जगत् को समस्त सन्तापों से मुक्त करने के लिए भगीरथ प्रयत्न कर रहे हैं । इस दृष्टि से 'मूकमाटी' के द्वारा जिन-वाणी के प्रसाद को यदि हम सब सम्पूर्ण भारत वर्ष में बाँटने के लिए कृत-संकल्प हो जाएँ तो इस सृष्टि का कल्याण होने में देर नहीं लगेगी। ६. 'मूकमाटी' के माध्यम से 'ज्ञान जागरण' का ऐसा सन्देश द्वार-द्वार तक पहुँचना चाहिए जिससे कि संसार के दिग्भ्रमित प्राणी सही दिशा प्राप्त कर सकें। यदि ऐसा हुआ तो निःसन्देह सदियाँ आचार्यश्री के इस अवदान को कभी विस्मृत नहीं कर पाएँगी। ७. जब एक कुशल रचनाकार जीवन और जगत् की मार्मिक संवेदनाओं की अतल गहराइयों में उतर जाता है तब उसकी रचना फिर किसी कोश' का अनुसरण नहीं करती वरन् कोशकारों के लिए एक नई शब्दावली प्रदान करती है । 'मूकमाटी' में आचार्यश्री की रचनात्मक अतलता को देखकर ऐसा लगता है कि वे विपुल और विस्मयकारी शब्द भण्डार के स्वामी हैं और यही वजह है कि उनके अक्षर-अक्षर में शब्दत्व की अनुगूंज सुनाई पड़ती है । उन्होंने शब्दों को नए अर्थ, नए परिवेश के रंग-बिरंगे परिधान पहनाए हैं। इसीलिए उन्हें 'शब्दों का जादूगर' कहा गया है। 'मूकमाटी' मात्र एक कृति ही नहीं, सम्पूर्ण सृष्टि का वह सारतत्त्व है, जिसे आज तक कोई साहित्यकार किसी एक रचना में संयोजित करने का दुर्लभ प्रयास नहीं कर सका और न कर पाएगा। अत: हम कह सकते हैं कि 'मूकमाटी' एक ऐसी रचना है जिसने साहित्य जगत् की मनीषा को झंकृत करने के साथ-साथ इस बात पर विचार करने के लिए साहित्यकारों को विवश किया है कि आज तक किसी साहित्यकार की किसी कृति पर इतना विचार-विमर्श नहीं हुआ जितना कि 'मूकमाटी' पर । सच तो यह है कि 'मूकमाटी' ने लोगों को इतना अधिक बोलने पर विवश किया है कि जिसका कोई अन्त नहीं। इसीलिए देश-विदेश के लगभग तीन सौ समीक्षकों के द्वारा 'मूकमाटी' पर समीक्षाएँ लिखे जाने के बावजूद भी विद्वान् यही कहते हैं न इति, न इति'- अर्थात् अभी भी काफ़ी कुछ कहना शेष है । बस। पृ. २४ 'उत्पापव्यय-प्रौढयभुक्तं सत्सन्तों से यटसूत्र मिला? इसमे अनन्त की असिमा सिमर-सी गई है।
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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