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मूकमाटी-मीमांसा :: 267 रूप है तथा उसका अनुभूतिपुष्ट-आचारपुष्ट बनना शोध । वर्णलाभ या अमिश्रित सहज रूप पाने पर माटी का रस से सम्पर्क होता है । चक्र चलता है । मूकमाटी मंगल घट में विकसित होती है । अन्तत: वह घट रसमय रूप में गुरु के पदप्रक्षालन एवं तृषा-शान्ति का कारण बनता है। किन्तु साधु गुरु अर्हन्तदेव या भगवान् महावीर के प्रति समर्पित हैं। उनकी 'देशना' (उपदेश) के साथ महाकाव्य समाप्त होता है । माटी आत्मा है, कुम्भकार गुरु, गुरूणांगुरु अर्हन्तदेव परमगुरु । माटी नायिका है, कुम्भकार नायक, गुरु अतिनायक तथा अर्हन्तदेव परमनायक । किन्तु काव्य में नायिका एवं नायक का अधिकतर वर्णन स्वाभाविक है । गुरु अन्त में आते हैं तथा अर्हन्तदेव फलागम-प्रतीक हैं । इस प्रतीकनिष्पन्न कथानक में कवि ने यथास्थान नाना दर्शन निरूपण, रस निरूपण, कल्पित कथानक (सेठ, आतंकवादी), गुरु, आतंकवादीगण, हृदयपरिवर्तन इत्यादि जैसे अनेक तत्त्वों का प्रौढ़ समन्वय किया है, जिसकी क्रमिक प्रोन्नति एवं पराकाष्ठा मननीय भी है । आवरण पृष्ठ पर कुम्भकार का चक्र और उस पर माटी का पिण्ड तथा सुन्दर मंगल घट महाकाव्य की प्रतीक योजना के सर्वत: अनुकूल हैं। समसामयिक सन्दर्भो से ओतप्रोत यह आध्यात्मिक महाकाव्य साहित्य में एक विलक्षण प्रयोग है।
'मूकमाटी' आधुनिक हिन्दी महाकाव्यों में लोकायतन' (पन्त) से सर्वाधिक तुलनीय है। दोनों स्फीत । दोनों अधुनातन । लोकायतन' के महाकवि ने विश्वव्याप्ति के मध्य समसामयिक सन्दर्भ सँजोए हैं। 'मूकमाटी' के कवि ने भी ऐसा किया है। किन्तु 'लोकायतन' में विश्वव्याप्ति को सादर ग्रहण किया गया है, 'मूकमाटी' में खण्डन-मण्डन बहुत है। ‘लोकायतन' विश्वकाव्य है, 'मूकमाटी' जैनकाव्य मात्र । दोनों बौद्धिकरस के महाकाव्य हैं। 'कामायनी' की प्रतीक योजना एवं काव्यकला अप्रतिम है, किन्तु मूकमाटी' का दार्शनिक ऊहापोह निस्सन्देह विशदतर है। प्रियप्रवास' की रसवत्ता चिरस्मरणीय है तो 'मूकमाटी' का संस्कार भी निस्सन्देह स्मरणीय है । 'साकेत' में पारिवारिकता एवं सामाजिकता का निर्वाह सुन्दरतर है तो 'मूकमाटी' व्यष्टि एवं समष्टि के सम्बन्ध पर निस्सन्देह प्रशस्य प्रकाश डालती है। डॉ. मुंशीराम शर्मा 'सोम' के महाकाव्य 'विरहिणी' की नायिका भी आत्मा है। 'विरहिणी' एक ललित-गम्भीर किन्तु अत्यधिक पारम्परिक आध्यात्मिक महाकाव्य है, 'मूकमाटी' ललित न होते हुए भी सफल एवं अभिनव महाकाव्य है- भले ही सार्वभौम न हो । 'उर्वशी' (दिनकर) कामपक्षप्रधान होने के कारण एकांगी-सी रह गई, किन्तु उसकी जीवन्तता चिरस्मरणीय है, 'मूकमाटी' का दर्शन बोझीला लगता है। 'ऊर्मिला' (नवीन) अतिभावुकता में स्मरणीय है, किन्तु 'मूकमाटी' उससे अधिक जीवन सापेक्ष है। 'ओ अहल्या' (रामकुमार वर्मा) चिर एवं युग के नारी-संवेदन की उत्कृष्ट कृति है, किन्तु 'मूकमाटी' में जीवन की व्यापकतर मीमांसा के दर्शन होते हैं। अन्य किसी काव्य की 'मूकमाटी' से तुलना उचित न होगी। 'कामायनी', 'प्रियप्रवास' एवं 'साकेत' अब भी खड़ीबोली-महाकाव्य-कीर्तिमान बने हुए हैं, क्योंकि उनमें जीवनरस एवं कला का स्तर उच्चतर है । 'लोकायतन', 'उर्वशी', 'उर्मिला', 'विरहिणी', 'ओ अहल्या' जैसी चिरस्मरणीय कृतियाँ भी इस त्रयी के जीवनरस, लालित्य एवं कला-गौरव से पिछड़ी लगती हैं। 'मूकमाटी' अपनी स्फीति एवं आध्यात्मिकता में इसी त्रयी के अनन्तर किसी से भी तुलनीय-वितुलनीय कृति अवश्य है । यदि काव्य खण्डनप्रधान न होकर मण्डनप्रधान होता तो लोकायतन से कम महत्त्वपूर्ण न होता । कुछ उत्तम अंश प्रस्तुत हैं जो आकलन-निकष बन सकते हैं :
आना, जाना, लगा हुआ है/आना यानी जनन-उत्पाद है जाना यानी मरण-व्यय है/लगा हुआ यानी स्थिर-धौव्य है और/है यानी चिर-सत्/ यही सत्य है, यही तथ्य !" (पृ. १८५)