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मूकमाटी-मीमांसा :: 245
संस्कृत साहित्य में भी उल्लेख हैं कि उद्यमशीलता से ही कार्य की सिद्धि होती है । एतद्विषयक सूक्ति है :
"उद्यमेन हि सिद्धयन्ति, कार्याणि न मनोरथैः । न हि सुप्तस्य सिंहस्य, प्रविशन्ति मुखे मृगाः ।”
'कला कला के लिए' अथवा 'कला जीवन के लिए' यह प्रश्न आज भी ज्वलन्त है। इसका समाधान साहित्यकारों ने अवश्य किया है, यथा :
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'मूकमाटी' में साहित्य और कला विषयक अवधारणा निम्नांकित पंक्तियों में व्यक्त की गई है :
"कला शब्द स्वयं कह रहा कि / 'क' यानी आत्मा - सुख है 'ला' यानी लाना - देता है / कोई भी कला हो
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"केवल मनोरंजन ही न कवि का कर्म होना चाहिये ।
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उसमें उचित उद्देश्य का भी मर्म होना चाहिये ।।'
"हो रहा है जो जहाँ, सो हो रहा,/ यदि वही हमने कहा तो क्या कहा ? किन्तु होना चाहिये कब, क्या, कहाँ ? / व्यक्त करती है कला ही यह यहाँ । मानते हैं जो कला के अर्थ हो, / स्वार्थिनी करते कला को व्यर्थ ही ॥'
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(साकेत : गुप्त )
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कला मात्र से जीवन में / सुख - शान्ति - सम्पन्नता आती है।” (पृ. ३९६) " हित से जो युक्त - समन्वित होता है / वह सहित माना है / और सहित का भाव ही / साहित्य बाना है, / अर्थ यह हुआ कि जिस के अवलोकन से / सुख का समुद्भव - सम्पादन हो
सही साहित्य वही है / अन्यथा, / सुरभि से विरहित पुष्प- सम
सुख का राहित्य है वह / सार - शून्य शब्द - झुण्ड ..!
... शान्ति का श्वास लेता / सार्थक जीवन हो / भ्रष्टा है शाश्वत साहित्य का ।
इस साहित्य को / आँखें भी पढ़ सकती हैं / कान भी सुन सकते हैं
इस की सेवा हाथ भी कर सकते हैं / यह साहित्य जीवन्त है ना !" (पृ. १११ )
भारतीय साहित्य में नारी के आदर्शरूप को अंकित किया गया है :
"यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः । यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः || ”
आर्य संस्कृति का यह आदर्श 'मूकमाटी' में साकार हो उठा है। नारी एक शक्ति है। वह पुरुष की सहचरी है। उसमें सागर जैसी गम्भीरता, आकाश जैसी विशालता और पृथ्वी जैसी क्षमाशीलता समाविष्ट है । वह पूज्या है । 'मूकमाटी' में नारी के अनेक रूपों की नवीन व्याख्या हुई है, जो आदर्श, नितान्त मौलिक और स्तुत्य भी है, यथा :
66 O 'स्' यानी सम-शील संयम / 'त्री' यानी तीन अर्थ हैं
धर्म, अर्थ, काम- - पुरुषार्थों में / पुरुष को कुशल - संयत बनाती है