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244 :: मूकमाटी-मीमांसा
'भी' में हैं, 'ही' में नहीं।/प्रभु से प्रार्थना है, कि/'ही' से हीन हो जगत् यह
अभी हो या कभी भी हो/'भी' से भेंट सभी की हो।” ('मूकमाटी', पृ. १७३) 'वसुधैव कुटुम्बकम्', विश्व बन्धुत्व, विश्व शान्ति और सह-अस्तित्व की पवित्र भावना से ओत-प्रोत उपर्युक्त कथन कितना मार्मिक एवं प्रेरक है।
कर्म ही मानव को महान् बनाते हैं । सत्-कर्मों के बल पर ही हम विश्व में गरिमा प्राप्त करते हैं। हमारे श्रेष्ठ कर्म तो इस पृथ्वी पर ही स्वर्ग बना सकते हैं, यथा :
"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥” (गीता, आ. २/४८) आंग्ल कवि एच. डब्ल्यू. लांगफेलो ने भी ऐसा ही कर्मशील भाव निम्न पंक्तियों में व्यक्त किया है :
"Let us der be up and doing With a heart for any faith. Still achieving still persuing
Learn to labour and to wait." सन्त कवि गोस्वामी तुलसीदास ने कर्म की विस्तृत मीमांसा करते हुए लिखा है :
___ "करम प्रधान बिस्व करि राखा, जो जस करइ तो तस फलु चाखा।" "सकल पदारथ हैं जगमाँही, कर्महीन नर पावत नाहीं।"
(रामचरितमानस : तुलसी) ० "सन्देश यहाँ मैं नहीं स्वर्ग का लाया/इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया।" - "पर जो मेरा गुण, कर्म, स्वभाव घरेंगे/वे औरों को भी तार, पार उतरेंगे।"
(साकेत : गुप्त) ० "श्रम होता सबसे अमूल्य धन,/सब जन खूब कमाते,
सब अशंक रहते अभाव से,/सब इच्छित सुख पाते।" ० "प्रकृति नहीं डर कर झुकती है/कभी भाग्य के बल से,
सदा हारती वह मनुष्य के/उद्यम से, श्रमजल से ॥” (कुरुक्षेत्र : दिनकर) 'मूकमाटी' में सन्त कवि ने उद्यमी होना प्रगति का प्रतीक माना है । यथा - 'मनवांछित फल मिलना ही उद्यम की सीमा है।'
"कभी-कभी/गति या प्रगति के अभाव में/आशा के पद ठण्डे पड़ते हैं, धृति, साहस, उत्साह भी/आह भरते हैं,/मन खिन्न होता है/किन्तु यह सब आस्थावान् पुरुष को/अभिशाप नहीं है,/वरन् । वरदान ही सिद्ध होते हैं जो यमी, दमी,/हरदम उद्यमी है। ...संघर्षमय जीवन का/उपसंहार/नियमरूप से/हर्षमय होता है।"
('मूकमाटी, पृ. १३-१४)
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