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________________ उदात्त भाव-मुक्ताओं का सागर है 'मूकमाटी' काव्य डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा 'अरुण' जैन सन्तों की गौरवशाली परम्परा के युग सन्त एवं विचारक आचार्य विद्यासागरजी की विलक्षण काव्य कृति 'मूकमाटी' काव्यत्व, दर्शन तथा नीतिशास्त्र की अद्वितीय एवं महिमामयी त्रिवेणी है, जिसे पढ़कर जीवन की अनेक उलझनों को सुलझाने का सहज-सरल मार्ग पाठक को मिल जाता है । गहन चिन्तन और मनन से प्राप्त अनुभवों को अत्यन्त बोधगम्य शैली में आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने भावानुकूल भाषा के माध्यम से सजीव कर दिया है । 'मूकमाटी' केवल काव्य ग्रन्थ नहीं है, प्रत्युत इसमें आचार्यप्रवर की लोक-कल्याणकारिणी साधना का सार ही अक्षरों में ढल-ढल कर ‘अक्षर-अमृत' बन गया है। मेरी दृष्टि में तो 'मूकमाटी' काव्य वस्तुतः उदात्त एवं उद्दाम ज्ञान सिन्धु में अथाह भाव-मुक्ताओं का ऐसा भण्डार है, जिसकी एक-एक 'मुक्ता' जीवन की मुक्ति का साधन बन पाने में पूर्णत: सक्षम और सफल है। रूपक तत्त्व में गुँथा जीवनानुभव : साहित्यशास्त्रीय दृष्टि से 'मूकमाटी' काव्य में रूपक तत्त्व के माध्यम से कवि ने जीवन-दर्शन को मुखर किया है। चार खण्डों में विभक्त काव्यकृति 'मूकमाटी' का प्रत्येक खण्ड सांकेतिक प्रतीकार्थ से युक्त है । ‘माटी' को जब कुशल कुम्भकार 'जल' के संयोग से गूंध कर कुम्भ बनाता है, तो वह 'जलग्रहण' के योग्य नहीं हो पाता । चूँकि ‘अग्नि’' में तप कर उसका संस्कार हो चुकने पर ही 'कुम्भ' औरों को शीतल जल दे पाने और फिर ‘भवसागर' पार करा सकने में सफल हो पाता है। 'कुम्भ' है क्या ? मूलतः 'माटी' ही तो है, जो 'मूक' है, लेकिन जीवन का मूलाधार बनकर मानव की धात्री बनती है । इस सजीव एवं सार्थक 'रूपक' में साधनाव्रती आचार्यप्रवर श्री विद्यासागरजी ने शब्दों में चिर निवास करने वाले 'ब्रह्म' की साधना करके काव्य की ऐसी दिव्य गंगा बहाई है, जो तन-मन और प्राण को पवित्र करने के साथ ही 'जीवन की सार्थकता' को भी रूपायित करती है। 'मूकमाटी' कहती है : “शब्दों पर विश्वास लाओ, / हाँ, हाँ !! / विश्वास को अनुभूति मिलेगी अवश्य मिलेगी /मगर/ मार्ग में नहीं, मंजिल पर !" (पृ. ४८८ ) 'मूकमाटी' हमसे आस्था और विश्वास ही माँगती है, और कुछ नहीं । सन्त - कवि आचार्य श्री विद्यासागर की ‘शब्द-ब्रह्म-साधना' से उद्भूत काव्य 'मूकमाटी' में मूल कथा फलक यों तो बहुत छोटा-सा है, किन्तु यत्र-तत्र अनेक मार्मिक कथाओं, उपकथाओं में 'संवाद कौशल' से नाटकीय तत्त्व की सृष्टि करके कवि ने प्रेरक प्रसंगों की अनूठी अवधारणा की है। 'माटी और सरिता' का प्रसंग जीवन के अनेक अबूझ प्रश्नों के समाधान देता है : . जीवन का / आस्था से वास्ता होने पर / रास्ता स्वयं शास्ता होकर सम्बोधित करता साधक को / साथी बन साथ देता है । / आस्था के तारों पर हो साधना की अंगुलियाँ / चलती हैं साधक की, / सार्थक जीवन में तब स्वरातीत सरगम झरती है !" (पृ. ९) आचार्यश्री निश्चय ही 'आस्था' को 'साधना' का मूल तत्त्व मान कर कुम्भ की आस्था को वाणी देते हैं
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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