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________________ 'मूकमाटी' में । यत्र-तत्र कवि सूत्र शैली में जीवन का तत्त्व दे जाता है : मूकमाटी-मीमांसा :: 219 "किसी कार्य को सम्पन्न करते समय / अनुकूलता की प्रतीक्षा करना सही पुरुषार्थ नहीं है।” (पृ. १३) शब्दों की व्याख्या करने में यशस्वी कवि विशेष रुचि लेते हुए लगते हैं, जिससे वे अपने चिन्तन को अभिव्यक्त कर सकें । 'कुम्भकार' शब्द का विश्लेषण दर्शनीय है : " कुम्भकार ! / 'कुं' यानी धरती / और / 'भ' यानी भाग्य - / यहाँ पर जो भाग्यवान् भाग्य-विधाता हो / कुम्भकार कहलाता है ।" (पृ. २८) दया का स्वरूप : जैन - सन्त की साधना का मूल होती है - 'अहिंसा', और अहिंसा के मूल में रहती है 'दया' । कविश्रेष्ठ आचार्य विद्यासागर के शब्दों में 'दया' का रूप देखिए : " वासना का विलास / मोह है, / दया का विकास / मोक्ष हैएक जीवन को बुरी तरह / जलाती है / भयंकर है, अंगार है ! एक जीवन को पूरी तरह / जिलाती है / शुभंकर है, शृंगार है।" (पृ. ३८) 'जलाती है- जिलाती है, 'भयंकर - शुभंकर' निश्चय ही यहाँ 'विलास - विकास', 'मोह-मोक्ष', 'बुरी तरह पूरी तरह', तथा 'अंगार है-शृंगार है' जैसे शब्द-युग्मों का प्रयोग करके कवि ने 'वासना' और 'दया' का जो सटीक विश्लेषण सूक्ष्मतम ढंग से किया है, वह बेजोड़ है, अनुपम है। शुभत्व का स्वरूप : 'माटी और कंकरों' के मार्मिक प्रसंग के माध्यम से कवि समाज की दृष्टि से 'शुभत्व' का स्वरूप स्पष्ट करते हैं । कवि कहता है : 1 ! " अरे कंकरो ! / माटी से मिलन तो हुआ / पर / माटी में मिले नहीं तुम छुवन तो हुआ / पर / माटी में घुले नहीं तुम ! / इतना ही नहीं, चलती चक्की में डालकर / तुम्हें पीसने पर भी / अपने गुण-धर्म / भूलते नहीं तुम ! भले ही / चूरण बनते, रेतिल; / माटी नहीं बनते तुम !” (पृ. ४९ ) और जब ये कंकर अपनी वेदना 'माटी' से कहते हैं तो उदार माटी उन्हें जीवन में 'शुभत्व' का मर्म बताती है : " महासत्ता - माँ की गवेषणा / समीचीना एषणा और / संकीर्ण - सत्ता की विरेचना / अवश्य करनी है तुम्हें ! अर्थ यह हुआ - / लघुता का त्यजन ही गुरुता का यजन ही / शुभ का सृजन है !” (पृ. ५१ ) इसी क्रम में कवि दो पंक्तियों में एक ऐसी भाव-मुक्ता दे देता है, जिसे हृदय में धारण करके सारी उलझनों से सहज ही मुक्ति पाई जा सकती है : " मान का अत्यन्त बौना होना / मान का अवसान - सा लगता है किन्तु, / भावी बहुमान हेतु / वह मान का
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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