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________________ : मूकमाटी-मीमांसा 202:: अहंता और लिप्सा से मुक्त हो जाएँ । यह काव्य रचना चार खण्डों- 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ'; 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं'; 'पुण्य का पालन: पाप-प्रक्षालन' एवं 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' में लिखी गई है। चारों खण्डों का नामकरण दार्शनिक तत्त्व संवेदना पूर्ण है । इन शीर्षकों में एक रहस्य, जीवन तत्त्व, भावयोग स्फूर्तमान, सौन्दर्य मुखरित है । सम्पूर्ण काव्य में रहस्योद्घाटन की भावमयी सरसता छायी हुई है। हृदय की क्लान्ति तिरोहित होकर एक नवचेतना पाठक में भर जाती है । उदात्त, उद्दाम, निर्मल, भव्य भावावेग उस को परिप्लावित कर देता है। जीवन में एक नई दृष्टि का उन्मेष होता है । कवि कहता है : “फलानुभूति - भोग और उपभोग के लिए / काल और क्षेत्र की अनुकूलता भी अपेक्षित है / केवल भोग-सामग्री ही नहीं ।" (पृ. ४३९ - ४४०) जीवन और साहित्य का एक स्वस्थ दृष्टिकोण, एक निर्मल भाव प्रदान करने का कवि ने संकेत किया है। कभी उसका इंगन प्रकृति की ओर होता है तो कभी भक्ति की ओर : " पा लिया / प्रकृति और पुरुष का परिचय, वेद मिला, भेद खुला - / * प्रकृति का प्रेम पाये बिना पुरुष का पुरुषार्थ फलता नहीं”।” (पृ. ३९४-३९५) प्रकृति खिलौना मात्र नहीं है। माटी मूक है, परन्तु निरर्थक क्रीड़ा द्वारा हमें उसका अपमान नहीं करना चाहिए। कर्म का गुरु महत्त्व है। कर्मशीलता क्या है ? " किसी कार्य को सम्पन्न करते समय / अनुकूलता की प्रतीक्षा करना सही पुरुषार्थ नहीं है ।" (पृ. १३) कवि ने इस कर्म तत्परता की परिणति भी स्पष्ट की है : “और, सुनो ! / मीठे दही से ही नहीं, / खट्टे से भी / समुचित मन्थन हो नवनीत का लाभ अवश्य होता है ।" (पृ. १३) साधना की कठोरता, संयमित जीवन, आत्मज्ञान का तोष एवं जीवन में पुरुषार्थ से फल प्राप्ति की इतनी सहज और तर्क सम्मत अभिव्यंजना पाठक को आत्मविमुग्ध ही नहीं करती, वह जीवन की सार्थकता और आत्मगरिमा द्वारा हमारे उत्साह को भी बढ़ाती है। कवि एक सन्त हैं और सन्त नीर-क्षीर विवेक सम्पन्न परमार्थी आत्मा होता है, जो इस विश्व में भूत मात्र लिए कुछ करने को व्याकुल रहता है। उसके लिए आत्म-स्वार्थ कुछ नहीं, कुछ काम्य नहीं होता । निस्पृह भाव से दू के उत्थान और कल्याण में उनकी साधना की चरमसिद्धि होती है। वह विरक्त होकर भी, विरागी होकर भी अपने युग और समाज के प्रति उदासीन नहीं होता बल्कि सचेत कर्तव्यपालक महापुरुष होता है : : “क्या इस समय मानवता / पूर्णत: मरी है ? क्या यहाँ पर दानवता / आ उभरी है.. ?" (पृ. ८१ ) आज के हिंसा, रक्तपात, अमानवीयता, स्वार्थपरता युक्त जीवन पर कवि ने कितना गहरा व्यंग्य किया है ! सहज भावोद्वेग करुणापूरित होकर फूट पड़ा है। आज के युग में दया और करुणा का कवि को नितान्त अभाव दिखाई
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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