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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 203 देता है । मानव कल्याण तथा भूत दया (प्राणीमात्र) की आज महती आवश्यकता है। कवि ने मछली के प्रतीक द्वारा, उसकी वेदना के माध्यम से इस तथ्य को सार्थक व्यंजना देने का प्रयास किया है : "दया की शरण मिली/जिया में किरण खिली।" (पृ. ७६) मनुष्य के हृदय में छिपी अनुकम्पा अपने को अभिव्यक्त करने के लिए बेचैन रहती है । इसकी परिणति भी कवि बतलाता है : "मोक्ष की यात्रा/"सफल हो/मोह की मात्रा/ विफल हो धर्म की विजय हो/कर्म का विलय हो।” (पृ. ७६-७७) कवि इस सन्दर्भ में व्यंग्य करने से भी नहीं चूका है : “ “वसुधैव कुटुम्बकम्"/इसका आधुनिकीकरण हुआ है वसु यानी धन-द्रव्य/धा यानी धारण करना/आज धन ही कुटुम्ब बन गया है/धन ही मुकुट बन गया है जीवन का।” (पृ. ८२) इस प्रकार की मधुरसिक्त उक्तियाँ पुस्तक में काफी मात्रा में देखी जा सकती हैं। कवि का भाषा पर पूरा अधिकार है । शब्दों का सार्थक और शक्तिपूर्ण प्रयोग उसके ज्ञान का परिचायक ही नहीं बल्कि कवि प्रतिभा का परिचय भी देता है । भाषा में समन्वयात्मक सन्तुलन इसी प्रतिभा का परिणाम है । इसीलिए साररूप में ज्ञान और साधना को बता देना उसके लिए सहज और स्वाभाविक बन गया है । कुछ ही शब्दों में अपनी मूल संवेदना को वह प्रकट कर सकने में समर्थ है : “सदोदिता सदोल्लसा/मेरी भावना हो,/दानव-तन घर मानव-मन पर/हिंसा का प्रभाव ना हो।” (पृ. ७७) कवि ने काव्य रचना में निहित अपने तत्त्वदर्शन को अनेक सूक्तिपरक परिभाषाओं के द्वारा प्रस्तुत किया है। कवि की अभिरुचि इस ओर अधिक दिखाई देती है। वह निरन्तर उपदेश-ग्रहणकर्ताओं को प्रबोधित करते रहना चाहता "पर-सम्पदा की ओर दृष्टि जाना/अज्ञान को बताता है, और पर-सम्पदा हरण कर संग्रह करना/मोह-मूर्छा का अतिरेक है। यह अति निम्न-कोटि का कर्म है/स्व-पर को सताना है, नीच - नरकों में जा जीवन को बिताना है।" (पृ. १८९) उचित-अनुचित, नैतिक-अनैतिक का ज्ञान इतने संक्षेप में कह देना सामान्य बुद्धि के व्यक्ति के लिए सहज नहीं है, जब तक कि किसी ने किसी व्यवहार या सिद्धान्त का पूर्ण पर्यवेक्षण, परीक्षण न किया हो । कवि ने कहा है कि परीक्षक बनने से पहले स्वयं परीक्षा में उत्तीर्ण होना आवश्यक ही नहीं, नैतिक दृष्टि से भी अत्यावश्यक है। कवि ने स्पष्ट किया है कि पर-कल्याण कामी, मोहमुक्त कर्मशील व्यक्ति के लिए तो इस पृथ्वी पर, इस जीवन में ही स्वर्ग है, यदि उपर्युक्त कथन के अनुसार आचरण किया जाए। नारी की महिमा, गौरव एवं मान-सम्मान का भी कवि ने वर्णन किया है । नारी का मातृरूप, महिला रूप, पत्नी रूप आदि सभी पर उसका ध्यान गया है। उसकी वत्सलता को बड़ी कोमल भावनाओं में पिरोकर वह कहता है :
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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