________________
192 :: मूकमाटी-मीमांसा
"उत्तुंग-तम गगन चूमते / तरह-तरह के तरुवर / छत्ता ताने खड़े हैं, श्रम-हारिणी धरती है / हरी-भरी लसती है / धरती पर छाया ने दरी बिछाई है । फूल-फलों-पत्रों से लदे / लघु-गुरु गुल्म- गुच्छ / श्रान्त-श्लथ पथिकों को मुस्कान-दान करते-से । / आपाद- कण्ठ पादपों से लिपटी / ललित-लतिकायें वह लगती हैं आगतों को बुलाती - लुभाती-सी, / और / अविरल चलते पथिकों को विश्राम लेने को कह रही हैं ।" (पृ. ४२३)
तृतीय अध्याय में तीन बदलियों का यथानुरूप चित्र है। पहली बदली धवला साड़ी पहने हुए है। द्वितीय बदली नाम चिली बदली के विषय में कहा है :
"पलाश की हँसी-सी साड़ी पहनी
गुलाब की आभा फीकी पड़ती जिससे ।” (पृ. २०० )
सबसे पिछली या तृतीय सुवर्ण वर्ण की साड़ी से सुसज्जित है। प्रस्तुत रचना में माटी, धरती, प्रभाकर, कुम्भ, सागर, बादल दल, पवन, नदी आदि का मानवीकरण कर प्रकृति के सौन्दर्य को स्थापित किया गया है। ९. साहित्यिक बोध
इस काव्य में जहाँ खट्टा-मीठा आदि भोज्य पदार्थों के रसों का विवेचन है वहाँ साहित्य के नव रसों का भी वर्णन है। कुम्भकार ने मिट्टी रौंदते समय सभी रसों को मानवीकरण के रूप में प्रस्तुत किया है। वीर रस, हास्य रस, रौद्र रस, विस्मय रस, शृंगार रस, बीभत्स रस, करुण रस, शान्त रस एवं वात्सल्य रस का विवेचन है। करुण के स्थान पर 'करुणा रस' शब्द का उल्लेख है, जो जीवन का प्राण माना है- "करुणा-रस जीवन का प्राण है" (पृ. १५९) । ' शान्त रस' को 'रस-राज' (पृ. १६०) कहा गया है जो आचार्यप्रवर विद्यासागर जैसे तपस्वी के लिए सर्वथा उपयुक्त है ।
" बोध के सिंचन बिना / शब्दों के पौधे ये कभी लहलहाते नहीं ।" (पृ. १०६ ) निःसन्देह साहित्य में शब्दों की सार्थकता अर्थबोध में निहित है। सच्चे साहित्य की व्याख्या इस प्रकार की है :
" हित से जो युक्त समन्वित होता है / वह सहित माना है / और
सहित का भाव ही / साहित्य बाना है, / अर्थ यह हुआ कि
जिस के अवलोकन से/सुख का समुद्भव - सम्पादन हो सही साहित्य वही है ।” (पृ. १११)
-
१०. काव्य अलंकारों का ज्ञान
आचार्यप्रवर ने काव्य में अलंकारों का सुष्ठु प्रयोग किया है। उनकी पीयूष वर्णी वाणी भले ही शान्त रसात्मक हो परन्तु अलंकारशून्या नहीं है। वह अनुप्रास, यमक, पुनरुक्ति प्रकाश, वीप्सा, वक्रोक्ति आदि शब्दालंकारों से अलंकृत है । यमक की चमक तो अनेकशः दमकती है, जैसे :
१. " पर पर दया करना । " (पृ. ३७ )
२. " कर माँगता है कर/ वह भी खुल कर !" (पृ. ११४)
३. "हो अपना, लो, अपनालो उसे !" (पृ. १२४)
४. “आज हीरक-हार की हार !" (पृ. ४६९)