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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 191 विधवा को अंग-राग/सुहाता नहीं कभी सधवा को संग-त्याग/सुहाता नहीं कभी, संसार से विपरीत रीत/विरलों की ही होती है भगवाँ को रंग-दाग/सुहाता नहीं कभी !" (पृ. ३५३-३५४) इस प्रकार अनेक उक्तियाँ ग्रन्थ में बिखरी हुई हैं, जो जगमगाती रहती हैं। ८. प्रकृति का सौन्दर्य बोध प्रस्तुत ग्रन्थ से स्पष्ट होता है कि आचार्यप्रवर प्रकृति के कवि हैं। माटी या माटी-निर्मित कुम्भ दोनों ही प्रकृति के उपादान हैं। अधिकांश घटनाएँ प्रकृति के प्रांगण में घटित होती हैं। ग्रन्थ का प्रारम्भ प्रकृति के सुन्दर चित्रण से किया गया है। प्रात:काल का मनोहारी चित्रण ग्रन्थ के श्रीगणेश में चार चाँद लगाता है : 0 “भानु की निद्रा टूट तो गई है/परन्तु अभी वह/लेटा है माँ की मार्दव-गोद में,/मुख पर अंचल ले कर/करवटें ले रहा है।" (पृ. १) 0 “लज्जा के घूघट में/डूबती-सी कुमुदिनी प्रभाकर के कर-छुवन से/बचना चाहती है वह; अपने पराग को-/सराग-मुद्रा को-/पाँखुरियों की ओट देती है।" (पृ. २) यह प्रकृति चित्रण छायावादी कवियों की भाँति अत्यन्त मनोहर है। द्वितीय अध्याय के आरम्भ में शीतकालीन निराली छटा द्रष्टव्य है : "पेड़-पौधों की/डाल-डाल पर/पात-पात पर/हिम-पात है। ...कल-कोमल-कायाली/लता-लतिकायें ये, शिशिर-छुवन से पीली पड़ती-सी/पूरी जल-जात है।" (पृ. ९०) इस अध्याय के अन्त में ग्रीष्म ऋतु की तपन का भयावह चित्रण है जो "तपन "तपन "तपन...' (पृ. १७७-१८२) पंक्तियों से प्रस्तुत है । इसी प्रसंग में कवि ग्रीष्म की उष्णता को चित्रित करता हुआ कहता है : "कभी-कभार भानु भी वह/अनल उगलता हुआ दिखा। जिस उगलन में/पेड़-पौधे पर्वत-पाषाण पूरा निखिल पाताल तल तक/पिघलता गलता हुआ दिखा।" (पृ. १८२) तृतीय अध्याय के आरम्भ में प्रलय का चित्रण विस्तृत रूप से है : "धरती को शीतलता का लोभ दे/इसे लूटा है,/इसीलिए आज यह धरती धरा रह गई/न ही वसुंधरा रही न वसुधा !/और वह जल रत्नाकर बना है-/बहा-बहा कर धरती के वैभव को ले गया है।" (पृ. १८९) चतुर्थ अध्याय में सेठ परिवार जब वन में जाता है तो वन कितना मनोहारी व आकर्षक है ! कवि इसका चित्र खींचते हुए कहता है :
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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