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'मूकमाटी' : श्रेष्ठ आध्यात्मिक महाकाव्य
डॉ. फैयाज़ अली खाँ 'मूकमाटी' साहित्य के क्षेत्र में एक अनुपम एवं बेजोड़ ग्रन्थ है । इसके द्वारा एक नितान्त नवीन विधा का सृजन हुआ है। इस प्रकार की कोई कृति मेरी दृष्टि में नहीं आई। 'न भूतो' तो मेरा विश्वास बना ही है, 'न भविष्यति' कहने का मैं साहस करता हूँ, यदि स्वयं आचार्यश्री ही इसी प्रकार के अन्य ग्रन्थ प्रणयन की कृपा न करें।
___ग्रन्थ प्रकाशन संस्था भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली के श्री लक्ष्मीचन्द्रजी ने ग्रन्थ के विद्वत्तापूर्ण ‘प्रस्तवन' में एक प्रश्न उठाया है कि 'मूकमाटी' को 'महाकाव्य कहा जाय या खण्ड-काव्य या मात्र काव्य ?' ग्रन्थ के सम्बन्ध में ऐसी दुविधा का कोई स्थान ही नहीं हो सकता । एक नई विधा को जन्म देने वाला यह ग्रन्थ महाकाव्य ही सिद्ध होता है, और सोने में सुगन्ध रूप एक परम श्रेष्ठ आध्यात्मिक महाकाव्य । फलत: उसके आकलन के तो मानदण्ड ही नए होंगे । दण्डी के 'काव्यादर्श', विश्वनाथ कविराज के साहित्य दर्पण' प्रभृति ग्रन्थों में विवेचित महाकाव्यों के मानदण्ड तो केवल सांसारिक महाकाव्यों पर लागू होते हैं। उनसे इस महाकाव्य का आकलन करना असमीचीन ही नहीं, अनावश्यक भी होगा। कारण, सांसारिक महाकाव्यों का प्रणयन लौकिक रस सृष्टि, पाण्डित्य प्रदर्शन एवं तत्सम्बन्धी प्रतिभा-प्रकटनप्रयास को ध्यानान्तर्गत रख कर किया जाता है । 'मूकमाटी' ग्रन्थ में तो मात्र आध्यात्मिक अभिव्यक्तियों को स्थान दिया गया है । सांसारिक महाकाव्यों में बुद्धि व्यायाम की अपेक्षा रहती है, 'मूकमाटी' को समझने के लिए आत्मसाधित अलौकिक अनुभव अनिवार्य है; सांसारिक महाकाव्य भव-पोषक होते हैं, 'मूकमाटी' भवनाशिनी है; सांसारिक महाकाव्य प्रवृत्तिपरक होते हैं, 'मूकमाटी' है निवृत्ति नियामक; एक का उद्देश्य संसार है, 'मूकमाटी' का मोक्ष; एक में क्षणिक सुखों की अनन्त प्रेरणा है, 'मूकमाटी' में आत्म प्राप्ति के सैद्धान्तिक उपाय।
सांसारिक महाकाव्यों के नायक सम्राट् अथवा यदा-कदा प्रसिद्ध व्यक्ति होते हैं, 'मूकमाटी' में ऐसे नायकों के स्थान पर नगण्य वस्तु 'माटी' को प्रतिष्ठित किया गया है। ये क्रमश: भोग एवं विराग के प्रतीक हैं। एक में कर्म लिप्ति है, दूसरे में कर्म नाश । आचार्य समन्तभद्र ने कितनी सुन्दर भावना का वर्णन 'रत्नकरण्डक श्रावकाचार' के इस श्लोक में किया है :
"देशयामि समीचीनं, धर्म कर्मनिबर्हणम्।।
संसारदुःखतः सत्त्वान् यो घरत्युत्तमे सुखे ॥२॥" — आचार्यों एवं सन्तों का उच्चतम लक्ष्य ही प्रवचनों द्वारा धर्मोद्वोधन है । फलत: प्रवचनों में आत्म तत्त्व विवेचन, उपदेश, हित कथन, मार्गदर्शन आदि उपकरणों का उद्धरण, उदाहरण सहित प्रस्तुतीकरण रहता है। 'मूकमाटी' में उन सब का प्राचुर्य है । अत: मैं तो इसे आध्यात्मिक महाकाव्य के अतिरिक्त एक महान् प्रवचन की संज्ञा भी देना चाहूँगा।
'मूकमाटी' की रूपरेखा एवं कथावस्तु का विशुद्ध विवरण तो उपर्युक्त प्रस्तवन' में अत्यन्त सुचारु रूप से दिया जा चुका है। उस ओर किंचित् भी परिवर्धन का प्रयत्न मात्र दुस्साहस ही कहा जाएगा । यहाँ केवल कतिपय अन्य बिन्दुओं का संक्षिप्त वर्णन पर्याप्त होगा। चिन्तन पद्धति : एक विशाल हृदय ग्रन्थकार का चिन्तन सार्वभौमिक हुआ करता है। उसी के फलस्वरूप अनेक देशों के साहित्यिक महारथियों के चिन्तन में समानता अनायास ही आ जाती है । 'मूकमाटी के कुछ उदाहरण अवलोकनीय